बुधवार, 27 अप्रैल 2011

मेरे लिये

नशे की वजह हो तुम मेरे लिए,

नशे की दवा भी तुम मेरे लिए....


              {१}

रात भी तुम,  दिन भी तुम,

और दिन का आतप भी तुम,

ग़र धूप हो तुम;तो घनी धूप में,

सघन छाँव भी तुम मेरे लिए....


                {२}

क्या कहूं कि क्या-क्या हो तुम,

ग़र हो तुम मेरे लिए तप्त मन;तो,

जीवन-मरू के इस तपते मन में,

शीतल चन्दन भी तुम मेरे लिए..... 


मंगलवार, 26 अप्रैल 2011

सिर्फ तुम से

 {१}

ग़लती ना होते हुए भी,

इलज़ाम लगाया तुमने;

और हर बात पे;बिन बात पे

मुझको रुलाया तुमने ....


हम तो सब भूल गए थे,

तेरी मुहब्बत के साए में;

पर ना जाने कौन सा ,

ये बदला चुकाया तुमने....

          {२}

अब तो उन हालातों पे भी 

रोना आ जाता है मुझको,

तेरे बानक से; तकदीर ने 

जो-जो दिखाया मुझको....



फिर से दे दे अपना हाथ;

तू खुद ही हाथों में मुझको,

कि, संग तेरे जिंदगी में;

आगे चलना है मुझको....


           {३}

जिंदगी की उदास  राहों से;

चुन लूंगी सारे गम के कांटे,

मैं तो  तेरी हर  राह  में, फूल 

बिछाने  की बात करती हूँ ....


जिंदगी में ना होगा कोई;

दर्द  ना  ग़म ना बेईमानी,

और  ना ही  कोई शिकायत 

तहेदिल से ये वादा करती हूँ ....

सोमवार, 25 अप्रैल 2011

Parivartan

Jeevan mein jab kabhi parivartan aana hota hai, toh Prabhu hame pehle hi uske baare mein ingit kar deta hai. woh hame kisi na kisi madhyam se aane wale samay k liye paripakwa karta hai, phir chaahe uske liye woh koi bhi raasta chune.........sahi hi hota hai. Bahot saare log aksar kuchch karne{jo saamajik drishti se anuchit ho} ke baad usko apni galti maante hain............yeh uchit nahi hai. Hamen us kritya ke nihitaarth ko dekhna chaahiye. Aksar jo siksha hamen maa-baap, bhai-behan,pati-patni aur gurujanon se nahin mil paati hai woh kisi anya maadhyam se milti hai ya phir paristithi sikha deti hai. Kuchch log ise ' raaste ke hamsafar'  hone ka naam dete hain.........yeh nitant ghatiya hai lekin wartmaan samay mein ise 'practical approach' kehte hain..............jab hamhari zindgi mein koi shamil ho gaya toh ho gaya........phir chaahe woh guru ho,mitra ho ya shatru.
                                                         Hamen sada aane wale samay ka swagat karna chahiye.............achcha ya bura.........woh samay hamari apni kismat ka hota hai , haan! achcha samay samapt jaldi ho jaata hai aur bura bitaye nahi beetta lekin jo niyati mein likh diya gaya hai usko agar sahajta se sweekaar kar len toh hi aage badhne mein safal honge anyatha pareshaan hote rahenge.
                                                         Ek baat...........jo hum hamesha padhte,sunte chale aa rahen hain ki............'yadi koi dil k kareeb ho toh usko apne se door nahin jaane dena chahiye'...........ekdum theek hai lekin ho sakta hai paas rakhne se woh door ho jaaye.Aisa sabke jeevan mein hota hai hum niyati ke virudh jaakar agar kuchch pana chahten hain toh dukh hi prapt hota hai. Isliye hamesha sahi samay per kaarya kar lena chahiye, kyonki..............................mai wohi aur tu wohi,lekin samay raha ab woh nahin. Samay se jyada nishthur aur kathor koi nahin.Woh apni upeksha ka badla leta awashya hai.
                                                        

प्रेम

मानव जीवन में प्रेम का अत्यंत महत्वपूर्ण है . वह प्रेम के बिना अपना जीवन नहीं व्यतीत कर सकता है .किसी के जीवन में ये कम और किसी के जीवन में अधिक होता है .जिनके जीवन में ये कम होता है ,वह अक्सर  नकारात्मक वृतियों से घिरे रहतें हैं एवं  दूसरों के खुशहाल  जीवन को देखकर ईर्ष्या की अग्नि में जलते रहते हैं .प्रेम एक ऐसा भाव है जो मनुष्य को 'इंसान'बनाने में सहायक होता है .परन्तु जीवन में ये भाव उसी व्यक्ति में होता है जो स्वयं से प्रेम करता है ,जो स्वयं से प्रेम करता है वो समस्त प्राणियों ,प्रकृति से प्रेम कर सकता है .यह एक    सहज भाव है .बहुत सारे व्यक्ति अक्सर यह कहते मिल जाते हैं कि प्रेम जीवन को बर्बाद कर देता है, ऐसा वो सोचते हैं जो बीमार मानसिकता के होते हैं और जिनके लिए प्रेम मात्र शारीरिक आकर्षण होता है .जहाँ प्रेम मन से आरम्भ होता है वहां तो मन के साथ शरीर का मिलना एक सहज प्रक्रिया होती है और तभी प्रेम अपने पूर्ण रूप में
प्रदर्शित होता है.  यह  प्रेम किन्ही दो व्यक्तियों  के मध्य का समीकरण होता है . यही समीकरण व्यक्ति को अन्य व्यक्तियों से प्रेम करने के  लिए प्रेरित करता है और यहीं से आरम्भ होती है 'वसुधैव कुटुम्बकम' की अवधारणा ..

एकाकीपन ( एक सकारात्मक चिंतन )

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है . उसे रहने  और पनपने के लिए एक वातावरण की आवश्यकता होती है . बिना संगी-साथी के उसे अपना जीवन रिक्त प्रतीत होता है, और यह रिक्तता कभी-कभी उसे हीन भावना से भी भर देती है .वह भटक उठता है किसी मित्र की तलाश में . पर यह आवश्यक नहीं है कि उसे वह मिल ही जाए या फिर जो मिले उससे उसके मन के तार जुड़ ही जाएँ और वह इस अकेलेपन की दुनिया से बाहर आ सके.
इसलिए यदि हो सके तो उसे उस अकेलेपन का सम्पूर्ण सदुपयोग करना चाहिए .मनुष्य अपने जीवन में कई ऐसे अपनी रूचि के काम करना चाहता है जिनको वह समय और परिस्तिथियोंवश नहीं कर पाता है. उन सभी कार्यों को अपने अकेलेपन का साथी बनाकर वह जीवन में "परफेक्ट" बन सकता है और अपने आप से खुश और संतुष्ट हो सकता है.
हमारे मन का वह कोना जो नितांत निजी होता है, उम्र बढ़ने के साथ-साथ हम उसमे झांकना भूल जाते हैं....अपनी जिम्मेदारिओं का लबादा ओढ़े हम अपने अलावा सबके पास होते हैं . समय बढ़ने के साथ जब वह सब हमसे दूर हो जाते हैं तो हमारा नकारात्मक भाव से ग्रस्त हो जाना स्वाभाविक ही है .
वर्ष भर हर तीज-त्यौहार में हम अपने घर का कोना-कोना साफ़ करते हैं और कामना करते हैं कि घर में खुशहाली रहे .फिर.....
मन का वह कोना ,अपना कोना...... क्या हमें समय-समय पर साफ़ नहीं करना चाहिए? अवश्य करना चाहिए.....क्योंकि हमारी उत्पत्ति एक स्वतंत्र व्यक्ति के रूप में हुयी है ...अतः अपनी जिम्मेदारियों का निर्वहन करते हुए यदि अपने व्यक्तित्व का भी सर्वांगीण विकास किया जाए मनुष्य ना केवल सदेव खुशहाल जीवन जियेगा बल्कि कई ऐसी कलाएं सीखेगा कि अकेलापन उसको कभी काटने नहीं दौड़ेगा ......और अंत में वह मृत्यु भी सुखद ही प्राप्त करेगा क्योंकि अपूर्णता व्यक्ति को अंतिम समय में भी सताती है.
अतः हम सबको अपने मन के उस कोने क़ी आवाज़ को अकेले में सुनना है और सुनकर समय का सही उपयोग करने निकल पड़ना है और सच में तभी सार्थक एवं पूर्ण होगा हमारा ............'अस्तित्व'

रिश्तों का समीकरण

 ' मुझसे तेरा कुछ रिश्ता है ,मन इतना ही गुन पाया है
                     है तेरा मेरा रिश्ता क्या ,मन अब तक ना सुन पाया है '
अक्सर ही हमारे जीवन में कुछ ऐसे व्यक्तित्व आते हैं कि वहां  हम अपने मन को बंधने से रोक नही पाते हैं. ना जाने कितने ही ऐसे रिश्तें हम अपने जीवन में जीते हैं ....जो हमारे मन के बेहद करीब होते हैं. परन्तु ध्यान देने योग्य बात यहाँ पर यह है कि हम ऐसे रिश्तों को क्या रूप देना चाहते हैं?. आरम्भतः यह रिश्ते  आकर्षण और बात-चीत के माध्यम से ही बनते हैं ....विचार मिलते हैं .....एक दूसरे के प्रति आदर की भावना पनपती है ....फिर प्रेम. यह रिश्तों का जोड़ बिलकुल गणित की ही तरह होता है ....हमें इसकी जानकारी अवश्य ही होनी चाहिए. यह १००% सत्य है कि बिना किसी भावना के हम किसी की तरफ आकृष्ट  नहीं हो सकते...हाँ! आगे चलकर यह भावना क्या रूप लेती है, यह ध्यातव्य है .
हम अक्सर अपने मन को धोखा देते हैं  या यूँ कहे कि समझ ही नहीं पाते हैं की जो सम्बन्ध  बन रहा है वह दोस्ती है या फिर प्यार? इसलिए सर्वप्रथम मन को साफ़ आईने की  तरह रखें कि ठीक-ठीक दिखाई दे, अन्यथा बाद में अफ़सोस भी करना पड़ सकता है . जहाँ सिर्फ बात-चीत है वहां कल दोस्ती भी हो सकती है और जहाँ दोस्ती है वहां प्यार भी पनप जाता है .यह एक अनकहा सच है कि प्यार मनुष्य कि सर्वकालिक आवश्यकता है . और दोस्ती भी.
दोस्ती तीन प्रकार की हो सकती है -------{१}सामान्य ....जहाँ दो व्यक्ति एक-दूसरे की आवश्यकता बनकर साथ निभाएं.
                                                      {२}विशेष........जहाँ दोनों एक दूसरे के पूरक बन जाएँ .
                                                      {३}असाधारण...जहाँ दो विपरीत विचारधारा वाले व्यक्ति परस्पर आकृष्ट हो.
सामान्य अवस्था वाली दोस्ती अक्सर पड़ोस, कॉलेज या ऑफिस से आरम्भ होती है और  सहज रूप में चलती रहती है , क्योंकि यह  दोस्ती हमारी आवश्यकता की होती है. इसके बिना हम अपने रोज-मर्रा के जीवन में असहजता महसूस करते हैं  इसमें आकर्षण का कोई तत्त्व ना भी हो तो भी यह चलती रहती है .इसमें एक जिम्मेदारी की भावना हमेशा रहती है ....असाधारण प्रकार की दोस्ती किसी विरोधी आकर्षण  से प्रारंभ होती है , यह अत्यंत तीव्रता और  आसानी से हो जाती है ,जो खूबी स्वयं में ना हो और दूसरे में दिखाई दे तो आकर्षण स्वाभाविक है परन्तु  इसके टूटने की सम्भावना भी  हमेशा ही बनी रहती है. दो विपरीत विचार अक्सर टकराव का कारण बनने लगते हैं...वह एक-दूसरे में सुधार करना और देखना दोस्ती के आवश्यक नियम मानने लग जाते हैं .शुरू में यह अच्छा लगता है लेकिन बाद में भार सदृश प्रतीत होने लग जाता है ..परन्तु विशेष अवस्था वाली दोस्ती कुछ विशेष ही होती है.यहाँ एक-दूसरे को समझने और जानने के साथ-साथ आदर और प्रेम की भावना भी रहती है....यहाँ व्यक्ति को सुधारा नहीं जाता बल्कि उसे सुना और समझा जाता है और वास्तव में हर मनुष्य अपने जीवन में इसी प्रकार की दोस्ती की चाह करता है. यह समय के साथ और परिपक्व होती जाती है  और यही एक अच्छा और
सच्चा रिश्ता है ......एक दूसरे के अस्तित्व को सम्मान देने का ...
इस दोस्ती को यदि जीवन-साथी के साथ देखना चाहे तो तीन बाते समझनी पड़ेगी ........यदि प्रथम दोस्ती arrange
शादी है तो दूसरी प्रकार की लव,......परन्तु हर कोई अपने जीवन साथी के साथ तीसरे प्रकार की ही दोस्ती चाहता है और इसी के साथ ही जीवन सुखमय बनाया जा सकता है.....
उपरोक्त तीनो प्रकार हम  अपने भीतर पा सकते हैं ...अतः रिश्तों को समझकर उनका निर्वहन करे तो  जीवन को सहज और सुखमय बनाया जा सकता है.....
                                            " है तू मेरा ही प्रतिबिम्ब, यह अब मन मेरा गुन पाया है                                                   
                                              क्योंकि मेरे मन की धुन ,तो तेरा ही मन सुन पाया है
                                              होना ना मुझसे विलग कभी, मन तुमसे अब ये कहता है
                                              गर मैं हूँ तेरी परछाई , तो तू भी तो मेरा हमसाया है.... "

इंतज़ार (कहानी )

आज सुबह से ही गीत बेचैनी से इधर-उधर कर रही थी. कैलेंडर में देखा ...एक अक्टूबर ..आँखों से उतरकर दिल में पहुँच गयी...एक अक्टूबर. बिताये नहीं बीतता उससे ये दिन. जाने किसका इंतज़ार रहता है उसे? और क्यों ?...वह तो  ये  भी  नहीं  जानती. दिमाग अनवरत अतीत में गोते   लगा रहा है  ....जब वो राज से मिलने उसके पास गयी थी .हाँ! राज ही तो था वो.समझ ही न सकी थी वो राज के मन की बात को ...हमेशा ही एक आवरण में जीने वाला ..और वो हमेशा ही पहाड़ी नदी की भांति  बेरोक-टोक स्वयं  रास्ते निकालकर  बहनेवाली .निश्छल,कल-कल खुल-खुल ..
.
"क्या हो रहा है"?
"कुछ नहीं ..बस तुमसे दूर जाने की सोच रहा हूँ "
"क्यों"?????चिल्ला पड़ी वो
"सोचता हूँ तुम्हारी परेशानियाँ ना बढ़ाऊ"
"क्या? कैसी परेशानी?"
"तुम नहीं समझोगी"..वो गंभीरता से बोला
" हाँ,हाँ! पागल हूँ मैं, जो ना समझूँगी .....पूरी दुनिया की अकल तुम्हारे पास ही तो है ...जो मर्ज़ी वो करो"
.कहकर गुस्से में पैर पटकती हुई अपने घर वापस आ गयी थी. काश रोक लिया होता उस दिन उसने राज़ को  जाने से.
अतीत के गह्वर से बाहर आ गयी.अपने मन को अपने नियंत्रण में करना आ गया है उसे अब. पहाड़ी नदी पर डैम  बना लिया है उसने या यूँ कहे कि समय ने सिखा दिया है.

सारे दिन कॉलेज में भी अन्यमनस्क रही वह....जितना भूलने की कोशिश करती उतना ही कमबख्त याद पीछा नहीं छोडती.किसी तरह समय पूरा होते ही वह कॉलेज से निकलकर सीधे मंदिर की तरफ बढ़ चली .....भगवान्  के पास रोने नहीं...बल्कि उस जगह राज़ की मौज़ूदगी  महसूस करने। कितना बदल दिया है आज उसे राज़ के उस प्यार ने जिसको वह कभी खुद पहले इस तरह से महसूस ना कर सकी थी। थोड़ी देर मंदिर में बैठी ....दर्शन किये ...दुआ भी की राज़ की खुशहाल जिंदगी के लिए .....हर जगह था राज़ उसके लिए....मंदिर की उस बेंच पे भी  जहाँ बैठकर उसने अपने जोते-मूज़े उतारे थे .     

पहली बार अपने घर के बाहर मिली थी उससे  वो ........कितना हेंडसम दिख रहा था.....सफ़ेद शर्ट और नीली जींस में
..पलटकर देखा था उसने भी उसे अपनी "इंडिका" में घुसते हुए...एक ठहराव था उसकी निगाहों में...सबका ही ध्यान रखनेवाला,एक अच्छे दिल का मालिक था वो...पर जाने क्यों वही नहीं समझ सकी थी उसे ....

"क्या कर रही हो गीत?"

फोन उठाते ही राज़ ने पूछा.
"कुछ भी तो नहीं"
"चलो कहीं घूम आयें"
"पागल हो क्या"?
चिल्ला पड़ी थी वह ....कितना गन्दा है ...च्छी-छि...ज़रा सा हँस कर बात क्या कर ली सर पर ही चढ़ गया ....अभी घर पे सबको पता चलेगा तो तूफ़ान ही आ जाएगा .......सब उसे कितना मान देते हैं...नहीं बात करूंगी कभी उससे
क्या पता था कि बात करे बिना रह ही ना पायेगी वह ....यही तो प्यार था ...जिसका एहसास बहुत  बाद में हो पाया .. और आज  वह उन सब बातों के लिए तरसेगी  जिनको कभी वह नज़र-अंदाज़ कर दिया करती थी ...

हमेशा ही राज़ ने उसकी ख़ुशी का ध्यान रखा था....जब भी उसने बुलाया वह तुरंत ही जिन्न की तरह हाज़िर हो जाता था....जब तक चाहती तब तक बैठा रहता...हमेशा ही उसके आने से घर का माहौल खुशनुमा हो उठता. "मेरे पास बहुत पोसिटिव -अनेर्जी है".........हँसकर कहता था. घंटों बैठकर अच्छी -अच्छी बातें सुनाता सबको.


लेकिन शिकायत गीत को उससे भी है. एक बार भी अपने दिल की बात नहीं बताई उसने.....अगर बता देता तो हर परेशानी का हल ढूंढ लेने वाली गीत इसका भी समाधान कर देती.....

"मेरे आने से परेशानी बढ़ गयी ना तुम्हारी?"
गीत  ने कितने सहज भाव से पूछा था और उसने कितनी गंभीरता से कहा था......
"हाँ"
"मेरी भी"
गीत ने चिढ कर कहा था.....पर वह तो जाने क्या समझ बैठा और आज इतनी दूरी आ गयी एक नासमझी के कारण.

क्या प्यार ऐसा ही होता है जब   वह हमारे पास होता है हम उसे समझ नहीं पाते और जब वह हमसे दूर चला जाता है तब एहसास जाग जाता है? समय रहते हुए भगवान यह ज्ञान क्यों नहीं दे देता है? जाते समय उसकी आँखों में जो भावपूर्ण पीड़ा थी ...उसका एहसास आज हो रहा है उसे. अपनी ही धुन में हमेशा जीने वाली गीत को पता भी ना चला और राज़ उसकी जिंदगी से बहुत दूर चला गया.....लेकिन चले जाने के बाद आज भी हर रोज़, हर कदम, हर घडी वह उसके साथ रहता है .....और वह उसे महसूस करते हुए अपनी जिंदगी को ख़ुशी-ख़ुशी जीने में लग जाती है ......लेकिन रोज़ ही उसका इंतज़ार भी करती है...उसे आशा ही नहीं विश्वास भी है उसके वापस लौटने का .......................क्योंकि आज वह जान चुकी है कि अगर वह यहाँ परेशान है तो वह भी  उसे याद करता होगा ........... उस समय का इंतज़ार तो उसे करना ही है ...उसे बहुत कुछ बताना भी है राज़ को....शिकायत भी करनी है ....उसके कंधे पर सर रखकर रोना भी है .......   . नहीं .....रोएगी नहीं...रोने से राज़ को गुस्सा आ जाती है .....इसलिए हँसकर ही उसका स्वागत करेगी वह ... ..............मंदिर की उस बेंच से उठकर थके हुए कदम लगभग घसीटते हुए घर की तरफ चल पड़ी ..म्यूजिक सीडी  बेचने वाले मिश्राजी क़ी दुकान से गाने की आवाज़ आ रही थी .........."तुम्हारा इंतज़ार है तुम पुकार लो ............".

 ..........................डॉ रागिनी मिश्र .............................

पहचान

पहचान हर व्यक्ति की ज़रुरत है, उसके जीवन का अनिवार्य अंग...बिना किसी पहचान के व्यक्ति स्वयं को अपूर्ण समझता है इसीलिए वह एक नाम,परिवार और कुल लेकर ही चलता है. बचपन में माँ-बाप द्वारा दिया नाम उसकी सामाजिक पहचान बनती है.. एवं.ईश्वर द्वारा प्रदत्त रूप उसकी व्यक्तिगत पहचान...."वह जो गोरा-गोरा,काले बाल वाला लड़का है ना ,वो शुक्लाजी का है"..
                     अब क्या एक व्यक्ति की इतनी ही पहचान होती है? नहीं....ये जीवनपर्यंत चलने वाली प्रक्रिया है ...समय के साथ-साथ हम समाज में अपनी एक जगह बनाते है ,जिससे हमारी एक अलग पहचान बनती है .....कुछ कर गुजरने की चाहत, कुछ पाने की इच्छा, कुछ दिखाने का जज्बा ..हमें एक ख़ास पहचान देता है....लेकिन जन्म के समय दिया गया नाम  ही उस पहचान को आगे बढाता है ....
                     अब यदि ऐसे में  व्यक्ति अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा के साथ अपना पुराना घर, सामान,इत्यादि  की तरह अपना पुराना नाम भी छोड़ना चाहे तो  क्या ये सामान्य होगा ? अगर पुरानी परिस्तिथियों  से असंतुष्टि भी थी तो हम मनुष्यों की खासियत है ...नकारात्मक को सकारात्मक में बदलने की.....इसके लिए किसी नयी पहचान को बनाने की ज़रुरत नहीं है....नाम और रूप वह लोग बदलते है जो  पलायनवादी होते है...या जिन्हें लोग उस नाम के साथ स्वीकार नहीं कर पाते .....या जो स्वयं से असंतुष्ट होते है....परन्तु यह एक सामान्य बात हुई......
                    जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि "स्वयं को जानने की" है...कभी-कभी यह लाख प्रयास करने पर भी संभव नहीं होता है और कभी तो अनायास ही हो जाता है....ये अनायास  ही ईश्वर  प्रदत्त प्रकाश  है....कोई इस रोशनी को समझ जाता है तो कोई नहीं....हम हमेशा दूसरों को जानने की ही  जुगत में लगे रहते है .....लेकिन इसमें गलत कुछ नहीं..क्योंकि सामनेवाला भी हमारी ही तरह होता है....अब यह प्रयास आपको यदि अपनी ओर ले आये तो "बल्ले-बल्ले"....इसके लिए किसी नाम की आवश्यकता नहीं...कोई कुल,गोत्र हमें स्वयं से नहीं मिला सकता .....हाँ! जो स्वयं को समझ सकता है वह सबको समझ पाने में समर्थ है ...................
                   इसके बाद किसी भी पहचान की आवश्यकता  नहीं रह जाती ...क्योंकि...........
                                       "तुम मुझमे प्रिये! फिर परिचय क्या?"