शनिवार, 1 नवंबर 2014

नारी प्रेम का पर्याय है, षड्यंत्रों का नहीं ......

नारी प्रेम का पर्याय है, षड्यंत्रों का नहीं ......
हाँ! मुझे ऐतराज़ है पाकिस्तानी सीरियल्स पर।

बड़े दिनों से 'ज़िंदगी' चैनल का शोर,   विशेष रूप से महिलाओं में हो रहा है। हम भी पिछले  कुछ महीनों से देख रहे हैं।  अच्छे कुर्ते, सादा लिबास, मेक-अप विहीन चेहरे, कम एपिसोड …… सब अच्छा। मार्केट में बहार आ गयी पाकिस्तानी कुर्तों की।  लेकिन ……, क्या किसी ने इन सीरियल्स के मूल पर गौर किया? आपने कहा कि, हमारे आस -पास की कथावस्तु लगती है। अपना सा लगता है।  .... जी नहीं ! मैंने तो स्त्रियों का इतना षड्यंत्रकारी रूप अपने आसपास नहीं देखा।  मेरी अम्मा, मम्मी, बुआ, चाची, दीदी, भाभी, सहेली, गुरुजन, पड़ोस की आंटी, दादी , सभी प्रेम से भरे हुए ही दिखे। अच्छी सलाह देनेवाले, घर को संभालकर चलने की सीख देनेवाले।  यहाँ तक कि, मेरे मायके के घर का पड़ोस ही एक नेक मुस्लिम परिवार का है। उस दीवार के पार से भी कभी ऐसा माहौल नहीं देखने को मिला कि एक माँ ही अपने बेटे के घर को उजाड़ने के लिए किसी और औरत के साथ मिलकर चाल चले। एक बात और , यहाँ मर्द भी इतना कान का कच्चा कि जो  औरत  उसके लिए अपने माँ-बाप का घर छोड़कर, उसके सहारे ही आई हो उसके चरित्र पर बड़ी ही आसानी से लाँछन लगाकर आधी रात में घर से निकाल दे..... हद है कि, हमारी बहनें इसे पसंद कर रही हैं।
मैंने अब तक तीन सीरियल्स देखे और तीनों में पति अपनी पत्नी पर विश्वास ना करके सीधे तलाक दे देता है , उसे घर से निकाल देता है।  हद है। .... दूसरी औरत मुस्कराती रहती है और जिसकी कोई गलती नहीं वह आँसूं बहाती रहती है।
वैसे ही स्त्री चरित्र पर लाँछन लगाना इस पुरुष -प्रधान समाज का प्रिय शगल रहा है और उस पर अब आपका समर्थन।  गलत सन्देश जाएगा।
कहाँ गयीं स्त्री अस्मिता का  मोर्चा संभालने वाली आवाज़ें? अभी कोई पुरुष इन्ही सीरियल्स के आधार पर किसी स्त्री के चरित्र पर लाँछन लगाये या  स्त्री को चालबाज़ कहे, वह किसी भी माँ बहन  को  सहन नहीं होगा तो फिर सिर्फ मनोरंजन के लिये समाज का गलत रूप प्रस्तुत करने वाले सीरियल्स की इतनी हिमायत अब मुझे अखर रही है।

जहाँ तक भाषा का प्रश्न है, उर्दू एक खूबसूरत और मीठी ज़ुबान है। मेरे बाबा को  हिंदी, संस्कृत, उर्दू और अंग्रेजी, इन चारों पर सामान अधिकार था और इसीलिए हम सभी भाई- बहन, बुआ- चाचा  और पापा को इन चारों ही भाषाओँ को समझना, बोलना , लिखना और पढ़ना आता है।  बहुत उर्दू साहित्य भी पढ़ा है,  शायद इसीलिए मुस्लिम समाज का इतना गलत चित्रण तीन महीने बाद ही झेलना मुश्किल है.....
अपने यहाँ और उनके यहाँ सीरियल्स में पुरुष और स्त्री की जिस मानसिकता के दर्शन कराये जा रहे हैं, उसे दूर से ही प्रणाम। मनोरंजन के लिए कभी -कभी कोई अच्छी मूवी देख ली जाए, वह ठीक है पर रोज रोज उस कुत्सित और रुग्ण मानसिकता को देखना कि अपने स्त्री होने पर दुःख हो,  ……इस पर मुझे ऐतराज़ है.…।

                                                         डॉ रागिनी मिश्र