सोमवार, 26 जनवरी 2015

अरे फेसबुक,ट्विटर, ब्लॉगजगत
 के बुद्धिजीवियों!
अपनी ईर्ष्या के चलते अपने लहँगे से तो अपना मुँह ना ढाँपो। कल सारे दिन एक न्यूज़ चैनेल fb पर भी चलता रहा। मेरे पुरुष मित्र तो अपनी गरिमा में रहे लेकिन कुछ महिला मित्रों ने अपनी नफरत की आग में जलते हुए वो मोर्चा खोला कि अपनी देश की गरिमा, संस्कृति (अतिथि देवो भव) और देश प्रेम तक को ताक पर रख दिया। 'मोदी ने चाय बनाई', 'वो गले मिले', 'मोदी पत्नी के साथ नहीं', 'उन्होंने कुर्ता नहीं पहना', 'आगरा चैन में', '26 जनवरी को झमाझम बारिश हो जाए', 'क्या मंदिर जाएंगे'.............और भी जाने क्या क्या और उन स्टेटस पर कमेन्ट भी आये जलकुकड़े लोगों के ही।  यह बात पाकिस्तान या चीन के लोग कहें तो जायज़ है लेकिन जब हिन्दुस्तानी ही यह सोचने लगें कि आज बारिश हो जाए और गणतंत्र दिवस का सारा कार्यक्रम सत्यानाश हो जाए तो यह वाकई सोचनीय स्थिति है। यह बात भी सब लोगों को पता है कि हमारे यहाँ मेहमान जान से भी प्यारा होता है  लेकिन क्या करें? …… कांग्रेसी शासनकाल में पता थी लेकिन अब तो जलते जलते बुद्धि भी जल गयी है.…। सोचने समझने की ताकत सब मोदी में लगा दी है। अच्छा! उस पर कमाल यह कि,एक बुज़ुर्गवार ने 15  अगस्त के लिए कहा था  ''अब कल हम लॉन्ग ड्राइव पर चले जाएंगे। … कौन देखेगा लालकिला?'' लेकिन चिपके टीवी से ही रहें और लगातार updates देते रहे।  इस सरकार के आने के बाद सूखा पड़ा तो मेरे एक मित्र ने लिखा, 'वाह प्रभु! तुम भी विरोध में, मस्त'' ……  अरे दोस्तों! देश हमारा है , इसका बारिश सूखा हम सबको प्रभावित करेगा। राजनीतिक नफ़रत छोड़ो, प्रेम से रहो और गणतन्त्र दिवस की बधाई  स्वीकार करो। मैं  चली अपने विद्यालय के प्यारे प्यारे बच्चों के पास क्योंकि लाख तूफान आये, वो उतनी ही गर्मजोशी के साथ अपने देश का गणतंत्र दिवस मनायेंगे जितनी गर्मजोशी से एक भारतीय को मनाना चाहिये …'चाहे सरकार किसी भी पार्टी हो' ……''जय हिन्द''                                                      

शनिवार, 1 नवंबर 2014

नारी प्रेम का पर्याय है, षड्यंत्रों का नहीं ......

नारी प्रेम का पर्याय है, षड्यंत्रों का नहीं ......
हाँ! मुझे ऐतराज़ है पाकिस्तानी सीरियल्स पर।

बड़े दिनों से 'ज़िंदगी' चैनल का शोर,   विशेष रूप से महिलाओं में हो रहा है। हम भी पिछले  कुछ महीनों से देख रहे हैं।  अच्छे कुर्ते, सादा लिबास, मेक-अप विहीन चेहरे, कम एपिसोड …… सब अच्छा। मार्केट में बहार आ गयी पाकिस्तानी कुर्तों की।  लेकिन ……, क्या किसी ने इन सीरियल्स के मूल पर गौर किया? आपने कहा कि, हमारे आस -पास की कथावस्तु लगती है। अपना सा लगता है।  .... जी नहीं ! मैंने तो स्त्रियों का इतना षड्यंत्रकारी रूप अपने आसपास नहीं देखा।  मेरी अम्मा, मम्मी, बुआ, चाची, दीदी, भाभी, सहेली, गुरुजन, पड़ोस की आंटी, दादी , सभी प्रेम से भरे हुए ही दिखे। अच्छी सलाह देनेवाले, घर को संभालकर चलने की सीख देनेवाले।  यहाँ तक कि, मेरे मायके के घर का पड़ोस ही एक नेक मुस्लिम परिवार का है। उस दीवार के पार से भी कभी ऐसा माहौल नहीं देखने को मिला कि एक माँ ही अपने बेटे के घर को उजाड़ने के लिए किसी और औरत के साथ मिलकर चाल चले। एक बात और , यहाँ मर्द भी इतना कान का कच्चा कि जो  औरत  उसके लिए अपने माँ-बाप का घर छोड़कर, उसके सहारे ही आई हो उसके चरित्र पर बड़ी ही आसानी से लाँछन लगाकर आधी रात में घर से निकाल दे..... हद है कि, हमारी बहनें इसे पसंद कर रही हैं।
मैंने अब तक तीन सीरियल्स देखे और तीनों में पति अपनी पत्नी पर विश्वास ना करके सीधे तलाक दे देता है , उसे घर से निकाल देता है।  हद है। .... दूसरी औरत मुस्कराती रहती है और जिसकी कोई गलती नहीं वह आँसूं बहाती रहती है।
वैसे ही स्त्री चरित्र पर लाँछन लगाना इस पुरुष -प्रधान समाज का प्रिय शगल रहा है और उस पर अब आपका समर्थन।  गलत सन्देश जाएगा।
कहाँ गयीं स्त्री अस्मिता का  मोर्चा संभालने वाली आवाज़ें? अभी कोई पुरुष इन्ही सीरियल्स के आधार पर किसी स्त्री के चरित्र पर लाँछन लगाये या  स्त्री को चालबाज़ कहे, वह किसी भी माँ बहन  को  सहन नहीं होगा तो फिर सिर्फ मनोरंजन के लिये समाज का गलत रूप प्रस्तुत करने वाले सीरियल्स की इतनी हिमायत अब मुझे अखर रही है।

जहाँ तक भाषा का प्रश्न है, उर्दू एक खूबसूरत और मीठी ज़ुबान है। मेरे बाबा को  हिंदी, संस्कृत, उर्दू और अंग्रेजी, इन चारों पर सामान अधिकार था और इसीलिए हम सभी भाई- बहन, बुआ- चाचा  और पापा को इन चारों ही भाषाओँ को समझना, बोलना , लिखना और पढ़ना आता है।  बहुत उर्दू साहित्य भी पढ़ा है,  शायद इसीलिए मुस्लिम समाज का इतना गलत चित्रण तीन महीने बाद ही झेलना मुश्किल है.....
अपने यहाँ और उनके यहाँ सीरियल्स में पुरुष और स्त्री की जिस मानसिकता के दर्शन कराये जा रहे हैं, उसे दूर से ही प्रणाम। मनोरंजन के लिए कभी -कभी कोई अच्छी मूवी देख ली जाए, वह ठीक है पर रोज रोज उस कुत्सित और रुग्ण मानसिकता को देखना कि अपने स्त्री होने पर दुःख हो,  ……इस पर मुझे ऐतराज़ है.…।

                                                         डॉ रागिनी मिश्र


शनिवार, 11 अक्तूबर 2014

'अंतर्राष्ट्र्रीय बालिका शिशु' दिवस और 'करवा- चौथ'

आज  'अंतर्राष्ट्र्रीय बालिका शिशु'  दिवस है  और संयोग से भारतीय स्त्रियों के सुहाग का पर्व  'करवा- चौथ'  भी है।  मैं दोनों के विषय में कुछ भी नहीं कहना चाह रही, बस एक संयोग बताना चाह  रही हूँ , वह भी विशेष रूप से स्त्रियों को।  लड़कियों के घर में रहने से घर गुलज़ार रहता है.… हर तरफ एक सकारात्मक माहौल रहता है। खास तौर से जब भी कोई तीज - त्यौहार पड़ता है तो घर में उसका विशेष उत्साह लड़कियों से ही होता है.…।

मुझे बहुत ही अच्छी तरह याद है कि जब तक 'अम्मा' (दादी) के पास रही, कभी भी उन्हें करवा या तीज पर बहुत काम नहीं करने देती थी।  यद्यपि छोटी बच्ची ही थी लेकिन यथासम्भव अपने नन्हें नन्हें हाँथों से उनकी मदद कराया करती थी।  वह मना  भी करती , लेकिन मैं कहती, ''नहीं अम्मा ! तुम थक जहियो, हमका करे देयो", …। अपने स्कूल से मेंहदी की पत्तियों को एक दिन पहले ही तोड़ लाती थी धोकर उसे सिल पर पीसती भी थी और थक भी जाती थी लेकिन उत्साह बरकरार रहता था फिर रात में जबरदस्ती सींक से अम्मा की हथेली पर गमला, सूरज, फूल और जाने क्या चील बिलौआ बना देती थी , सुबह वह  सबको दिखाते हुए घूमती थी, ''बिटिया लगाइस है''.... उनके साथ बैठकर शाम भर कद्दू , घुइयाँ , कढ़ी, फरा, खीर ,दही बड़ा सब बनवाती थी फिर 6 बजे से ही उनके पीछे पड़  जाती थी ,'' अम्मा तैयार हो'' , मेरी अम्मा बहुत ही गोरी चिट्टी सुन्दर सी थीं , लम्बे सफ़ेद बाल में चुटीला लगाती थी, हमेशा नारंगी सिन्दूर और राल लगाकर प्लास्टिक की बड़ी सी टिकुली, आँखों  में ताजा पारा काजल। वह हमेशा पीली साड़ी पहनकर पूजा करती थीं.। उस दिन वह विशेष रूप से मोटी मोटी  पाजेब, चौड़ी सी कमरपेटी,  बड़ी सी नथ और हांथों में ठंसी सी लाल चूड़ियाँ पहनती थीं।  उनका वह रूप मेरी आँखों में आज भी सजीव है।  भागकर उनका गड़ुवा छत पर रख आती, उल्टा सीधा चौक भी पूर आती , दिया जलाए मैं चाँद का इन्तजार करती ताकि मेरी अम्मा जल्दी से अर्घ्य देकर पानी पी लें।  उनकी सुनाई सारी  कहानियाँ मुझे उन्ही के बोलों में आज तक स्मरण हैं। वह हमेशा कहा करती थी ,'' कल का जब परारे घर चली जहियो तो ई सब को करी ?''

जब अम्मा के बाद लखनऊ अपनी मम्मी के पास आई तो बड़ी हो चुकी थी।  व्रत में मम्मी को पूरा आराम देती थी कि कहीं उन्हें कोई तकलीफ ना हो जाए।  दीदी  और मैं उनके साथ खाना बनवाते  , पूजा की तैयारी  करवाते  , उन्हें सजाते , उनके लिए फूलों का गजरा अपने हाँथो से बनाते  और उनका सुन्दर रूप निहारते। और मेरा वही काम, उसी तरह छत पर भाग भागकर सारा सामान रख आना और उचक उचक कर चाँद को ढूँढना। अम्मा वाली कहानियाँ मैं मम्मी को सुनाया करती थी। पूरा घर चहकता रहता।

आज अपने पति के लिए पूरे मन से व्रत करती हूँ।  सारे विधि -विधानों के साथ.…। सारे पकवान बनते हैं, साज श्रृंगार शायद उससे ज्यादा होता है,  लेकिन यहाँ खुले मन से स्वीकार कर रही हूँ कि वह चहक, वह उत्साह, उस प्रफुल्लित घर के  वातावरण का सर्वथा अभाव है क्यूंकि मेरे दो प्यारे बेटे हैं , बेटियाँ  नहीं। एक बेटी माँ के लिए क्या होती है, ये किसी भी स्त्री को बताने की बात नहीं है.… ये एक बंधन है प्यार का। तो आज का यह दिन सभी प्यारी प्यारी बच्चियों के नाम.… और मेरी सभी बहनों और माताओं को करवा चौथ की ढेर सारी बधाई और शुभकामनायें।
                                                      'डॉ रागिनी मिश्र '

रविवार, 17 अगस्त 2014

जन्मदिन मुबारक हो 'नागरजी



आज गंगा जमुनी संस्कृति के पोषक, अवध की अनमोल धरोहर और शहर-ए-लखनऊ की शान महान साहित्यकार  'पं.अमृतलाल नागर' जी की ९९वीं  जयंती है।  नागर जी के दर्शन का सौभाग्य मुझे बी.ए. करने (१९८७) के दौरान प्राप्त हुआ था, जब मैं अपने साहित्यकार ताऊ जी  'प.गंगारत्न पाण्डेय' जी के साथ चौक स्थित उनके निवास पर एक साहित्यिक गोष्ठी में गयी थी.… अपने तख़्त पर किसी बादशाह की तरह मसनद की टेक लगाए हुए , पान रचे बैठे थे। उन्होंने मुझे अपना उपन्यास ''बूँद और समुद्र'' पढ़ने को दिया था और हँसते हुए कहा था, '' वापस कर देना''....... लकिन मैं किताबों की शुरू से ही लालची रही हूँ इसलिए वह आज तक मेरे पास उनके आशीर्वाद के रूप में है।  लेकिन तब मैं नहीं जानती थी कि ये मात्र पढ़ने के लिए दिया गया कोई उपन्यास नहीं है, अपितु एक दिन मैं उसी पुस्तक को आधार और आदेश मानकर अपना शोध-कार्य करूंगी। दुबारा उनके जीवित रहते उनसे मुलाक़ात का अवसर नहीं प्राप्त हो पाया क्यूंकि ताउजी अमरीका चले गए थे।  हाँ, १९९० में मेडिकल कॉलेज में उनको देखने अवश्य गयी थी,  लेकिन कोई भी बात ना कर सकी थी क्यूंकि डॉ ने मना कर  दिया  था।  वह तब  भी साहित्यिक वीथिका में उलझे रहते थे, उनकी ज़िंदादिली देखकर कोई नहीं कह सकता था कि  उन्हें जानलेवा कैंसर है।
उनकी कृतियों  में जिस गंगा जमुनी संस्कृति की बात है वह आज के सामजिक परिदृश्य में अत्यंत आवश्यक है।  उनके बूँद और समुद्र, सुहाग के नूपुर, अमृत और विष, मानस का हंस, और  विशेषतः 'नाचौ बहुत गुपाल' जितनी बार पढ़िए , रोमांच हो आता है।  कहानियों पर तो टीवी सीरियल बन ही चुके हैं और उनका सर्वेक्षण कार्य 'ग़दर के फूल' और 'ये कोठेवालियां', ये सिद्ध कर देता है की लेखन मात्र शान्ति की अवस्था में एकाग्रचित्त होकर सोचते हुए करने का कार्य नहीं है..... …।
अपना शोध-प्रबंध मैंने '' नगर जी के कथा- साहित्य में अवध- संस्कृति'' पर ही लिखा और उस सिलसिले मैं जाने कितनी बार चौक स्थित उनके उस घर गयी जहाँ उनकी यादों को उनकी पौत्री ने यथावत रखा हुआ था। ये मेरा दुर्भाग्य ही है कि अपनी व्यस्तताओं के चलते  उसको मैं आज तक किताब के रूप में प्रकाशित ना करवा सकी लेकिन आज उनके ९९वी जयंती पर श्रद्धांजलि स्वरुप वचन लेती हूँ कि  जन्मशती पर  उनके उसी  निवास पर, उसी तख़्त पर, उन पर लिखी किताब रखकर आऊँगी।
गंगा जमुनी संस्कृति के चतुर चितेरे नागरजी को मेरा शत शत नमन।
                                                                                                           डॉ रागिनी मिश्र 
                                                                 

शनिवार, 16 अगस्त 2014

भारतीय गाँवों में आज़ादी के जश्न के मायने



जब तक लखनऊ के पॉश कहे जाने वाले गोमती नगर के विद्यालय में कार्यरत रही, किसी भी राष्ट्रीय पर्व पर वह जोश और उल्लास देखने को नहीं मिला, जो आज बाराबंकी के एक छोटे से कस्बे  में देखने को मिला। तबियत ख़राब होने के कारण दो दिन से विद्यालय नहीं गयी थी और हमारे विद्यालय की बिल्डिंग भी अभी पूरी नहीं बनी है, इसलिए जूनियर हाईस्कूल में ही स्वतंत्रता दिवस का कार्यक्रम होना था।   लेकिन बच्चों ने फोन पर ही अपनी निर्माणाधीन बिल्डिंग पर ध्वजारोहण करने की प्रार्थना की, ''मैंम; जितनी भी बनी  है अपनी तो है न ? हम फाइनल इयर में हैं, अगले साल कहाँ १५ अगस्त मनाएंगे , क्या पता? " कैसे ना मानती ये बात ? फोन पर ही हम भावुक हो गए।  मेरे ही विद्यालय में मुझे बच्चों ने सादर आमन्त्रित किया।
 मैं भी इतनी उत्साहित थी कि एक घंटे की ड्राइव के बावजूद सुबह 7.20 पर ही विद्यालय पहुँच गयी, जो कि  लखनऊ में २ मिनट का रास्ता तय कर जाने में 7. 45 हो जाते थे। अद्भुत नज़ारा था. मेरे रास्ते में लगभग 5 बेसिक और 4  प्राइवेट स्कूल हैं, सबके सब अपने सीमित साधनों में भरपूर सजे थे, झंडियां, रंगोली, चूना, फूल।
लगभग हर जगह बच्चे और टीचर्स 7 .15  पर ही मौजूद थे,  रास्ते में जाने वाले हर बच्चे के हाँथ में तिरंगा था।  गरीब की साइकिल पर भी तिरंगा था और झोपडी पर भी छोटा सा कागज़ का तिरंगा था।  ये वास्तविक राष्ट्रीय भावना थी …… सच, अपना बचपन याद आ गया।  रात में ही बाबा तिरंगा ला देते थे और सुबह चकाचक यूनिफार्म और हाँथ में तिरंगा लेकर अपने को '' भगत सिंह" से काम नहीं समझती थी  ................ और जैसे ही कार अपने निर्माणाधीन स्कूल के पास रोकी, बच्चों का झुण्ड समवेत स्वर में बोला, ''गुड मॉर्निंग मैम " एक लड़के ने जोर से डाँटा  '' नहीं'' और फिर सब एलर्ट खड़े होकर बोले " जय हिन्द"…।
अजीब सा रोमांच हो आया।  बिल्डिंग को दो दिन में ही बच्चों ने बाहर  से पुतवा दिया था, झंडे के लिए रॉड लग गयी थी, गाँधी आश्रम से खादी  का तिरंगा आकर लग चुका था।
चूने से पूरे रास्ते पर लाइन और ऐरो बने हुए थे , लड़कियां धान की भूसी को विभिन्न रंगों में रंगकर रंगोली बना पूरी कर रही थीं, जिन बच्चों को हमेशा साफ़ यूनिफार्म में आने के लिए डाँटना पड़ता रहता था, आज सब सफ़ेद साफ़ कपड़ों में थे।
मन खुश हो गया।  आज़ादी की ख़ुशी दोगुनी हो गयी.… लखनऊ में हमेशा ही 20 दिन पहले से ही पढ़ाई लिखाई  किनारे कर हम देशगीत और भाषण की प्रैक्टिस करते रहते थे, लेकिन यकीन मानिए ; यहाँ हर बच्चा अपने आप तैयार था।
क्या लड़कियां और क्या लड़के....... सबके हाँथ में एक पर्चा सा था।  एक के बाद एक अपने आप खड़े  होकर कुछ ना कुछ देश भक्ति से भरे हुए भाव व्यक्त कर रहे थे।
 ये फॉर्मेलिटी नहीं थी; सच में देशप्रेम के उदगार थे। सोचा था एक घंटे में निपट जाएगा सारा कार्यक्रम लेकिन मैंने अपनी ख़ुशी से बच्चों के बीच लगभग 4 घंटे बिताये,

आसपास के घर वालों ने भी ध्वजारोहण में भाग लिया और उन्होंने ने भी अपनी पुरबिया में गाने सुनाये।
लड्डू दुबारा मंगाए और जी भरकर सबको खिलाये।  आज मैंने मन ही मन इस छोटी सी जगह पर पोस्टिंग के लिए सरकार को धन्यवाद दिया। 'जय हिन्द'

गुरुवार, 14 अगस्त 2014

यारों दोस्ती बड़ी ही हसीन है .... भाग - २




अभी 13  नवम्बर 2013  में  28  साल बाद हम बचपन की सहेलियाँ  प्लान करके इलाहाबाद में इकट्ठे  हुए थे। …28  साल बाद,  बचपन की सखियों से मिलना क्या सुख होता है , इसको शब्दों में बता पाना असम्भव है।  हम एक दूसरे को देखकर आनंद से विभोर हो गए थे..... 1996  में इन्टर के बाद ये कभी नहीं सोचा था की सब अलग अलग हो जायेंगे और मिलने में इतना वक़्त लग जाएगा और पिछले साल मिलने के बाद ये सोचकर दुःखी थे कि अब कब मिलेंगे? लेकिन वाह रे दोस्ती की लगन .... जैसे ही श्रद्धा का फ़ोन आया की वो 6th अगस्त को बड़ौदा  से इलाहाबाद आ रही है , हम सबके फ़ोन की घंटी बजने लगी और दिल की भी..... चूँकि बच्चों के 1st टर्म खत्म हो गए थे इसलिए घर से अनुमति मिलने में ज्यादा देर  नहीं लगी..... और फटाफट सबने आने के लिए हाँ कर दी और प्लान भी बना तो " फ्रेंडशिप डे" के बाद..... भावनाएं कुछ ज्यादा ही उफान पर थी.....


धड़ाधड़ सबके रिजर्वेशन हो गए..... … और 6th अगस्त का दिन आ गया।  मीना के घर रुकने का प्लान बना। अलका जौनपुर से , रजनी बनारस से, श्रद्धा बड़ौदा से और मैं लखनऊ से पहुँच रहे थे और अंजू और मीना तो हमारा स्वागत करने के लिए इलाहाबाद में ही थीं।  बस, इतने लोग ही फेसबुक के माध्यम से मिल पायें थे, जिसके लिए हम हमेशा ही फेसबुक के आभारी रहेंगे।  चूँकि श्रद्धा के मायके में फंक्शन था इसलिए वो मीना के घर सुबह से नहीं थी,,,, मैं करीब 12  बजे पहुँची , तब तक अलका और अंजू पहुंचकर हम सबका इंतज़ार कर रही थी।  लिपटकर सब गले मिले और बस, ठहाकों का दौर चल पड़ा।  श्रद्धा 10  मिनट में हेस्टिंग्स रोड से आ गयी और फिर चालू हो गया 40+ लेडीज का स्वीट 16een  वाला दौर।  हमें लगा कि हम आज भी उतने ही जवान और एनर्जेटिक हैं।  ये बचपन की दोस्ती भी कमाल की होती है।  हर महंगे टॉनिक से ज्यादा असरदार। रजनी की ट्रेन थोड़ा लेट थी इसलिए हम सब लंच के लिए उसका इंतज़ार कर रहे थे।  लेकिन लगातार कुछ ना कुछ खाये ही जा रहे थे और वैसे भी ये सर्वमान्य सत्य है कि बचपन में जिस शहर की १० पैसे की लकड़ी के डिब्बे में रखी हुई बर्फवाली आइसक्रीम खायी हो बड़े होकर baskin robbins  भी उसके आगे फीकी ही रहती है।  और मेरी जबान तो 'लोकनाथ चौराहे की फ्रूट आइसक्रीम' पर वैसे ही फिसल जाती है।  अंदर गली में 'हरी नमकीन  के समोसे, मठरी' और थोड़ा आगे मंदिर के सामने वाली 'चाट की दूकान पर वो करेला और बैगनी'…। आज तक लगभग पूरा भारत घूम आई हूँ, ऐसी चाट कहीं नहीं मिली और फ्रूट आइसक्रीम तो मानो गूलर का फूल हो।  हम हंस रहे थे, बतिया रहे थे, खा रहे थे, लड़ रहे थे , …। रजनी बस पहुँचने वाली थी।  उसके लेने मीना के  देवर जा चुके थे।  अचानक  'रजनी आ गयी रजनी आ गयी ' के शोर से मानों पूरा सिविल लाइन्स गूँज गया.… रजनी पिछले साल किसी कारणवश नहीं आ सकी थी इसलिए उससे मिलने की बहुत उत्सुकता थी। रजनी बचपन से ही गंभीर और समझदार थी, आज उससे कुछ और ज्यादा। लेकिन थोड़ी ही देर में वह हमारे रंग में रंग गयी और फिर तो बस्स्स ,,, :):):)

3  बज गए थे।  इसलिए खाना खाने का इरादा बना सब मीना की रसोई में घुस गए.. … उफ्फ्फ , कितनी वैराइटी बना रखी थी उसने और शायद सब मेरी पसंद का।  मैं अक्सर जाती रहती हूँ और भी अक्सर लखनऊ आ जाती हैं।  अरहर की दाल, शिमला मिर्च पनीर की मस्त सब्जी, दम आलू , लौकी की सूखी सब्जी, सलाद , दही, चावल , रोटी और जाने कितने तरह की मिठाई लेकिन अपना दिल तो 'कामधेनु' के बूंदी वाले लड्डू पर अटक जाता है। हम हंस रहे थे , खा रहे थे , एक दूसरे  के मुंह में कौर खिला रहे थे, फोटो भी ज़रूरी थी इसलिए वो भी खिंचवा रहे थे।

6  बजे से श्रद्धा के यहाँ उसके भतीजे के जन्मदिन का उत्सव था।  भैया ने हम सबको पहले से invite कर रखा था। वह इसलिए ५ बजे अपने घर चली गयी लेकिन हम तो अपने में ही मगन थे इसलिए पहले बचपन की मिलन  स्थली सिविल लाइन्स के 'हनुमान मंदिर' जाने का निर्णय लिया गया.… चूँकि पिछली बार रजनी नहीं आ पायी थी इसलिए उसके साथ भी अपनी दोस्ती की नज़र उतारने हम पहुँच गए 'हनुमान मंदिर'. .... .... यहाँ पहुंचकर हमेशा ही अजीब सी शान्ति और आनंद की अनुभूति होती है।  आखिर बहुत सारी  यादें जुडी हैं यहाँ से। यहाँ आज भी उसी तरह से डलिया  में प्रसाद के लिए मिठाई और लकड़ी की तश्तरी जैसे में चढ़ावे के लिए फूल मिलते हैं और कमोबेश स्वाद भी वही।  पूरे मंदिर के दर्शन कर उसी तरह से नज़र उतार हम जैसे ही गाड़ी पर बैठे, श्रद्धा के फ़ोन आने लगे।  'जल्दी आओ जल्दी आओ' की रट।  उसका हमारे बिना वहां फंक्शन में भी मन नहीं लग रहा था और हम वो गलियां, वो सड़कें, वो स्कूल  .... की यादों से निकल नहीं पा रहे थे।

हमें श्रद्धा की मम्मी और पापा से भी मिलना था।  उनका स्नेह आज तक हम लोगों को उनसे बांधे हुए है। हम जल्दी- जल्दी तैयार होने में जुट गए।  अब 5 औरतें तैयार हो रही हों, तो वक़्त तो लगता ही है।  अलका और मीना आज भी उतनी ही तन्मयता से तैयार होती हैं जितनी उस समय होती थी।  उसको तैयार होता देख मन खुश हो जाता है। … पूरा 16 श्रृंगार।  अंजू और रजनी शुरू से ही गोरी चिट्टी और सुन्दर थीं , उनको मेकअप की ज़रुरत वैसे भी नहीं पड़ती और अपन तो हमेशा से ही जस के तस।  गोरा होने के लिए पाउडर सा सहारा लेना ही पड़ता है :):):) खैर, अब तक श्रद्धा के बीस फ़ोन कॉल्स आ चुके थे , चिल्ला रही थी , गुस्सा हो रही थी लेकिन हमारी खिलखिलाहट कम ही नहीं हो पा रही थी और यकीन भी था कि 2 मिनट में उसे मना  ही लेंगे।
6 बजे की पार्टी में हम 8  बजे पहुंचे।  श्रद्धा का मुंह फूला हुआ था लेकिन जैसे ही सबने एक साथ उसे गले से लगाया सब गुस्सा काफूर। श्रद्धा के भैया, भाभी से मिलकर बहुत ख़ुशी हुई. … हम लपके उसकी मम्मी की तरफ।  उन्होंने हम सबको गले लगाकर प्यार किया।  वहां भी हम सब आपस में मगन थे।  खूब मस्ती की।  अंकल हमेशा की ही तरह आँटी के प्रेम में रँगे दिखे।  वह हम सबके लिए उपहार में साड़ियाँ और सूट लायें  थे।  हम भी उनसे पूरे हक़ से लेते हैं।  कोई संकोच नहीं।  मानों सबके अपने मम्मी पापा हों। पार्टी खत्म होने की कगार पर थी।  हमनें मीना के यहाँ रात में रतजगे का प्लान बनाया था इसलिए श्रद्धा भी घर से अनुमति ले हम सबके साथ आ गयी।

हम सब एक- दुसरे के लिए उपहार लेकर आएं थे।  रजनी बनारस की सुन्दर सुन्दर चूड़ियाँ और स्पेशल बिस्कुटलायी थी , अलका ने हम सबके लिए खूबसूरत से पर्स लिए थे, मीना ने हम सबको बहुत ही सुन्दर फ्रेंडशिप बैंड  पहनाया , मैं अपनी परमप्रिय 'सुगन्धको' के इत्र लेकर गयी थी और प्यारी अंजू हम सबके पिछले बार के एक प्यारे से फोटो को कॉफी मग पर बनवाकर लायी थी..... वो हमारे लिए सबसे स्पेशल था।  रजनी उदास थी , क्यूंकि उसमें उसकी फोटो नहीं थी।

अब रात का हाल तो क्या लिखूं ? ठहाके ठहाके और ठहाके।  श्रद्धा तो मानों कपिल पशु आहार खाकर आई हो बड़ौदा से।  उसकी एनर्जी तो समय के साथ बढ़ती ही जा रही थी।  कितनी बातें , कितनी यादें हमनें शेयर की। इतना खाने के बावजूद बीच बीच में कोई जाकर चाय बना लाता तो कभी कोई नींबू पानी।   सुबह के 4 बजे जाकर सबको डांटकर मैंने ही सुलाया क्यूंकि सुबह भी कई प्रोग्राम थे लेकिन 5.30 पर ही सब फिर जग गए।  और फिर उसी एनर्जी के साथ।  मैं सोचकर हैरान थी कि दोस्तों में कौन सा revital होता है? अभी घर पर कमर दर्द और पैर दर्द कर रही होती।


रजनी को जल्दी जाना था इसलिए वो नहाधोकर तैयार थी.…  अंजू चाय बना लायी थी , बहुत ही टेस्टी। लेकिन सबने रजनी को देर तक रोकने का सोच रखा था।  हम पिछली बार भी अपनीप्रिय इंग्लिश टीचर से मिलने गए थे, लेकिन उनकी बेटी मिली थी वह नहीं मिल पायीं थीं।  अबकी सब पहले से तय था।  9 बजे उनसे मिलना तय हुआ था।  रजनी भी उनसे मिलना चाहती थी इसलिए उसने अपनी ट्रेन मिस कर दी।  अंजू का बीटा दिल्ली से आ गया था इसलिए उसे घर जाना पड़ गया।  वह बेमन गयी और हमने भी उसे भारी मन से विदा दी।  तय समय पर हमने मैम के घर की बेल बजा दी।  वह भी इंतज़ार कर रही थीं. … उतनी ही यंग और फिट दिख रही थीं वह।  उनसे मिलकर हम आह्लादित हो गए।  जाने कितनी देर वह हमसे बातें करती रहीं।  अपने प्रिय बच्चों को देखकर वह भी खुश थीं।  चूँकि वह प्रिंसिपल बनकर रिटायर हुई थीं इसलिए उन्हें मुझ पर बहुत गर्व हो रहा था।  बचपन में वह हम लोगों को अच्छे मार्क्स आने पर हमेशा टॉफी देती थीं , आज  भी उन्होंने हमारे लिए टोफी और चॉकलेट रखी  थी।  उनके पैर छू, उनसे विदा ले हम वापस आये।  अब तक 12 बज चुके थे.। श्रद्धा का भाई उसे लेने आ गया था, वह गले लगकर गयी।  रजनी को देर हो रही थी , उसे बस में बैठाया।  अब बचे मैं, अलका और मीना।  थोड़ी देर घूमे , लेमन सोडा पिया फिर एल्चिको में खाया और फिर अलका भी 3 बजे  अपने पापा से मिलने चली गयी।  मेरी 4 बजे की बस थी। सबको विदा कर, अगली बारजल्दी ही मिलने का वादा कर सबको विदा कर सबसे विदा ले भारी मन से मैं भी अपनी दुनिया की ओर चल पड़ी।

डॉ रागिनी मिश्र 

गुरुवार, 3 अप्रैल 2014

स्वतन्त्र भारत में भ्रष्टाचार का उदय ---भाग-1

स्वतन्त्र  भारत का पहला वित्तीय घोटाला…… वर्ष 1948
'' इंग्लैंड  से भारतीय सेना के लिए 155 जीपें खरीदी गयीं , जिसमें 80  लाख रुपये का घोटाला किया गया. इस घोटाले के  मुख्य सूत्रधार ''श्री वी. के. कृष्णामेनन'' थे। वर्ष1955  में ''श्री जवाहरलाल नेहरू जी'' ने इस घोटाले के पारितोषक के रूप में उन्हें अपने मंत्रिमण्डल  में शामिल कर लिया और घोटाले की  चल रही जांच को हमेशा के लिए बंद कर दिया। ……। काश! उसी वक्त भ्रष्टाचार के उस प्रथम अंकुर को कुचल दिया गया होता और कांग्रेस ने उसे और ना सींचा होता, तो आज एक भ्रष्टाचार (कोयला घोटाला) की कीमत 3 लाख 25 हज़ार करोड़ रूपये ना पहुँचती। आखिर यही तो है हर हाथ (कांग्रेस) शक्ति, हर हाथ (कांग्रेस) तरक्क़ी। ……
(साभार --गूगल एवं अन्य प्रकाशित लेख एवं पुस्तकें )