मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है . उसे रहने और पनपने के लिए एक वातावरण की आवश्यकता होती है . बिना संगी-साथी के उसे अपना जीवन रिक्त प्रतीत होता है, और यह रिक्तता कभी-कभी उसे हीन भावना से भी भर देती है .वह भटक उठता है किसी मित्र की तलाश में . पर यह आवश्यक नहीं है कि उसे वह मिल ही जाए या फिर जो मिले उससे उसके मन के तार जुड़ ही जाएँ और वह इस अकेलेपन की दुनिया से बाहर आ सके.
इसलिए यदि हो सके तो उसे उस अकेलेपन का सम्पूर्ण सदुपयोग करना चाहिए .मनुष्य अपने जीवन में कई ऐसे अपनी रूचि के काम करना चाहता है जिनको वह समय और परिस्तिथियोंवश नहीं कर पाता है. उन सभी कार्यों को अपने अकेलेपन का साथी बनाकर वह जीवन में "परफेक्ट" बन सकता है और अपने आप से खुश और संतुष्ट हो सकता है.
हमारे मन का वह कोना जो नितांत निजी होता है, उम्र बढ़ने के साथ-साथ हम उसमे झांकना भूल जाते हैं....अपनी जिम्मेदारिओं का लबादा ओढ़े हम अपने अलावा सबके पास होते हैं . समय बढ़ने के साथ जब वह सब हमसे दूर हो जाते हैं तो हमारा नकारात्मक भाव से ग्रस्त हो जाना स्वाभाविक ही है .
वर्ष भर हर तीज-त्यौहार में हम अपने घर का कोना-कोना साफ़ करते हैं और कामना करते हैं कि घर में खुशहाली रहे .फिर.....
मन का वह कोना ,अपना कोना...... क्या हमें समय-समय पर साफ़ नहीं करना चाहिए? अवश्य करना चाहिए.....क्योंकि हमारी उत्पत्ति एक स्वतंत्र व्यक्ति के रूप में हुयी है ...अतः अपनी जिम्मेदारियों का निर्वहन करते हुए यदि अपने व्यक्तित्व का भी सर्वांगीण विकास किया जाए मनुष्य ना केवल सदेव खुशहाल जीवन जियेगा बल्कि कई ऐसी कलाएं सीखेगा कि अकेलापन उसको कभी काटने नहीं दौड़ेगा ......और अंत में वह मृत्यु भी सुखद ही प्राप्त करेगा क्योंकि अपूर्णता व्यक्ति को अंतिम समय में भी सताती है.
अतः हम सबको अपने मन के उस कोने क़ी आवाज़ को अकेले में सुनना है और सुनकर समय का सही उपयोग करने निकल पड़ना है और सच में तभी सार्थक एवं पूर्ण होगा हमारा ............'अस्तित्व'
इसलिए यदि हो सके तो उसे उस अकेलेपन का सम्पूर्ण सदुपयोग करना चाहिए .मनुष्य अपने जीवन में कई ऐसे अपनी रूचि के काम करना चाहता है जिनको वह समय और परिस्तिथियोंवश नहीं कर पाता है. उन सभी कार्यों को अपने अकेलेपन का साथी बनाकर वह जीवन में "परफेक्ट" बन सकता है और अपने आप से खुश और संतुष्ट हो सकता है.
हमारे मन का वह कोना जो नितांत निजी होता है, उम्र बढ़ने के साथ-साथ हम उसमे झांकना भूल जाते हैं....अपनी जिम्मेदारिओं का लबादा ओढ़े हम अपने अलावा सबके पास होते हैं . समय बढ़ने के साथ जब वह सब हमसे दूर हो जाते हैं तो हमारा नकारात्मक भाव से ग्रस्त हो जाना स्वाभाविक ही है .
वर्ष भर हर तीज-त्यौहार में हम अपने घर का कोना-कोना साफ़ करते हैं और कामना करते हैं कि घर में खुशहाली रहे .फिर.....
मन का वह कोना ,अपना कोना...... क्या हमें समय-समय पर साफ़ नहीं करना चाहिए? अवश्य करना चाहिए.....क्योंकि हमारी उत्पत्ति एक स्वतंत्र व्यक्ति के रूप में हुयी है ...अतः अपनी जिम्मेदारियों का निर्वहन करते हुए यदि अपने व्यक्तित्व का भी सर्वांगीण विकास किया जाए मनुष्य ना केवल सदेव खुशहाल जीवन जियेगा बल्कि कई ऐसी कलाएं सीखेगा कि अकेलापन उसको कभी काटने नहीं दौड़ेगा ......और अंत में वह मृत्यु भी सुखद ही प्राप्त करेगा क्योंकि अपूर्णता व्यक्ति को अंतिम समय में भी सताती है.
अतः हम सबको अपने मन के उस कोने क़ी आवाज़ को अकेले में सुनना है और सुनकर समय का सही उपयोग करने निकल पड़ना है और सच में तभी सार्थक एवं पूर्ण होगा हमारा ............'अस्तित्व'
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