आज अचानक विवेक ने प्रस्ताव रखा कि "चलो कुदियाघाट घूम आया जाए"{बड़े प्रयत्नों से सरकार ने इसे खूबसूरत और साफ़-सुथरा एवं घूमने लायक बनाया है}.........मैं बाखुशी तैयार हो साथ चल पड़ी. मुझे हमेशा ही वहाँ जाना अच्छा लगता है. एक तो वही एक ऐसा घाट बचा है जहाँ जाकर यह आभास रहता है कि अपने शहर लखनऊ में "गोमती" नामक नदी है.........और दूसरे नदी की पवित्रता, नैसर्गिकता और शांति किसके मन को नहीं मोह लेती..........जल्दी-जल्दी ढलान उतरकर घाट पर पहुंची ........लेकिन यह क्या?? अभी पिछले हफ़्ते जो साफ़-सुथरा, हवा के झोंकों से इधर-उधर डोलता नदी का स्वरुप था, वह कहाँ चला गया.........हर तरफ पानी में फूल, नारियल,माता की चुन्नी,मिटटी के मटके,पन्नी में बंधी हवन की राख...........दिल रो पड़ा. क्या यह एक आस्था का दूसरी आस्था से मिलन था? या फिर आस्था के नाम पर प्रदूषण बढ़ाने में सहयोग? मेरे देखते ही देखते एक महिला ने अपने सिर पर से कलश उतारा,प्रणाम किया और छपाक से नदी की भेंट, लेकिन यह क्या; उसने नारियल पर से चुन्नी भी नहीं उतारी थी और न ही पन्नी से राख निकालकर पन्नी अलग की ...........मैंने उसे मना किया लेकिन वह अपनी आस्था में हस्तक्षेप स्वीकार न कर सकी........मन बुझ गया.हम सरकार को तो गंदगी के नाम पे खूब भला-बुरा कहते हैं, लेकिन हम क्या कर रहे हैं?..............क्या अपनी आने वाली पीढी के लिए स्वच्छ नदी के स्थान पर मात्र ये शेर छोड़ेंगे .....................
वह वक्त भी देखा है, तारीख की नज़रों ने ...........
लम्हों ने खता की थी,सदियों ने सजा पायी है........
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