आज 'अंतर्राष्ट्र्रीय बालिका शिशु' दिवस है और संयोग से भारतीय स्त्रियों के सुहाग का पर्व 'करवा- चौथ' भी है। मैं दोनों के विषय में कुछ भी नहीं कहना चाह रही, बस एक संयोग बताना चाह रही हूँ , वह भी विशेष रूप से स्त्रियों को। लड़कियों के घर में रहने से घर गुलज़ार रहता है.… हर तरफ एक सकारात्मक माहौल रहता है। खास तौर से जब भी कोई तीज - त्यौहार पड़ता है तो घर में उसका विशेष उत्साह लड़कियों से ही होता है.…।
मुझे बहुत ही अच्छी तरह याद है कि जब तक 'अम्मा' (दादी) के पास रही, कभी भी उन्हें करवा या तीज पर बहुत काम नहीं करने देती थी। यद्यपि छोटी बच्ची ही थी लेकिन यथासम्भव अपने नन्हें नन्हें हाँथों से उनकी मदद कराया करती थी। वह मना भी करती , लेकिन मैं कहती, ''नहीं अम्मा ! तुम थक जहियो, हमका करे देयो", …। अपने स्कूल से मेंहदी की पत्तियों को एक दिन पहले ही तोड़ लाती थी धोकर उसे सिल पर पीसती भी थी और थक भी जाती थी लेकिन उत्साह बरकरार रहता था फिर रात में जबरदस्ती सींक से अम्मा की हथेली पर गमला, सूरज, फूल और जाने क्या चील बिलौआ बना देती थी , सुबह वह सबको दिखाते हुए घूमती थी, ''बिटिया लगाइस है''.... उनके साथ बैठकर शाम भर कद्दू , घुइयाँ , कढ़ी, फरा, खीर ,दही बड़ा सब बनवाती थी फिर 6 बजे से ही उनके पीछे पड़ जाती थी ,'' अम्मा तैयार हो'' , मेरी अम्मा बहुत ही गोरी चिट्टी सुन्दर सी थीं , लम्बे सफ़ेद बाल में चुटीला लगाती थी, हमेशा नारंगी सिन्दूर और राल लगाकर प्लास्टिक की बड़ी सी टिकुली, आँखों में ताजा पारा काजल। वह हमेशा पीली साड़ी पहनकर पूजा करती थीं.। उस दिन वह विशेष रूप से मोटी मोटी पाजेब, चौड़ी सी कमरपेटी, बड़ी सी नथ और हांथों में ठंसी सी लाल चूड़ियाँ पहनती थीं। उनका वह रूप मेरी आँखों में आज भी सजीव है। भागकर उनका गड़ुवा छत पर रख आती, उल्टा सीधा चौक भी पूर आती , दिया जलाए मैं चाँद का इन्तजार करती ताकि मेरी अम्मा जल्दी से अर्घ्य देकर पानी पी लें। उनकी सुनाई सारी कहानियाँ मुझे उन्ही के बोलों में आज तक स्मरण हैं। वह हमेशा कहा करती थी ,'' कल का जब परारे घर चली जहियो तो ई सब को करी ?''
जब अम्मा के बाद लखनऊ अपनी मम्मी के पास आई तो बड़ी हो चुकी थी। व्रत में मम्मी को पूरा आराम देती थी कि कहीं उन्हें कोई तकलीफ ना हो जाए। दीदी और मैं उनके साथ खाना बनवाते , पूजा की तैयारी करवाते , उन्हें सजाते , उनके लिए फूलों का गजरा अपने हाँथो से बनाते और उनका सुन्दर रूप निहारते। और मेरा वही काम, उसी तरह छत पर भाग भागकर सारा सामान रख आना और उचक उचक कर चाँद को ढूँढना। अम्मा वाली कहानियाँ मैं मम्मी को सुनाया करती थी। पूरा घर चहकता रहता।
आज अपने पति के लिए पूरे मन से व्रत करती हूँ। सारे विधि -विधानों के साथ.…। सारे पकवान बनते हैं, साज श्रृंगार शायद उससे ज्यादा होता है, लेकिन यहाँ खुले मन से स्वीकार कर रही हूँ कि वह चहक, वह उत्साह, उस प्रफुल्लित घर के वातावरण का सर्वथा अभाव है क्यूंकि मेरे दो प्यारे बेटे हैं , बेटियाँ नहीं। एक बेटी माँ के लिए क्या होती है, ये किसी भी स्त्री को बताने की बात नहीं है.… ये एक बंधन है प्यार का। तो आज का यह दिन सभी प्यारी प्यारी बच्चियों के नाम.… और मेरी सभी बहनों और माताओं को करवा चौथ की ढेर सारी बधाई और शुभकामनायें।
'डॉ रागिनी मिश्र '
मुझे बहुत ही अच्छी तरह याद है कि जब तक 'अम्मा' (दादी) के पास रही, कभी भी उन्हें करवा या तीज पर बहुत काम नहीं करने देती थी। यद्यपि छोटी बच्ची ही थी लेकिन यथासम्भव अपने नन्हें नन्हें हाँथों से उनकी मदद कराया करती थी। वह मना भी करती , लेकिन मैं कहती, ''नहीं अम्मा ! तुम थक जहियो, हमका करे देयो", …। अपने स्कूल से मेंहदी की पत्तियों को एक दिन पहले ही तोड़ लाती थी धोकर उसे सिल पर पीसती भी थी और थक भी जाती थी लेकिन उत्साह बरकरार रहता था फिर रात में जबरदस्ती सींक से अम्मा की हथेली पर गमला, सूरज, फूल और जाने क्या चील बिलौआ बना देती थी , सुबह वह सबको दिखाते हुए घूमती थी, ''बिटिया लगाइस है''.... उनके साथ बैठकर शाम भर कद्दू , घुइयाँ , कढ़ी, फरा, खीर ,दही बड़ा सब बनवाती थी फिर 6 बजे से ही उनके पीछे पड़ जाती थी ,'' अम्मा तैयार हो'' , मेरी अम्मा बहुत ही गोरी चिट्टी सुन्दर सी थीं , लम्बे सफ़ेद बाल में चुटीला लगाती थी, हमेशा नारंगी सिन्दूर और राल लगाकर प्लास्टिक की बड़ी सी टिकुली, आँखों में ताजा पारा काजल। वह हमेशा पीली साड़ी पहनकर पूजा करती थीं.। उस दिन वह विशेष रूप से मोटी मोटी पाजेब, चौड़ी सी कमरपेटी, बड़ी सी नथ और हांथों में ठंसी सी लाल चूड़ियाँ पहनती थीं। उनका वह रूप मेरी आँखों में आज भी सजीव है। भागकर उनका गड़ुवा छत पर रख आती, उल्टा सीधा चौक भी पूर आती , दिया जलाए मैं चाँद का इन्तजार करती ताकि मेरी अम्मा जल्दी से अर्घ्य देकर पानी पी लें। उनकी सुनाई सारी कहानियाँ मुझे उन्ही के बोलों में आज तक स्मरण हैं। वह हमेशा कहा करती थी ,'' कल का जब परारे घर चली जहियो तो ई सब को करी ?''
जब अम्मा के बाद लखनऊ अपनी मम्मी के पास आई तो बड़ी हो चुकी थी। व्रत में मम्मी को पूरा आराम देती थी कि कहीं उन्हें कोई तकलीफ ना हो जाए। दीदी और मैं उनके साथ खाना बनवाते , पूजा की तैयारी करवाते , उन्हें सजाते , उनके लिए फूलों का गजरा अपने हाँथो से बनाते और उनका सुन्दर रूप निहारते। और मेरा वही काम, उसी तरह छत पर भाग भागकर सारा सामान रख आना और उचक उचक कर चाँद को ढूँढना। अम्मा वाली कहानियाँ मैं मम्मी को सुनाया करती थी। पूरा घर चहकता रहता।
आज अपने पति के लिए पूरे मन से व्रत करती हूँ। सारे विधि -विधानों के साथ.…। सारे पकवान बनते हैं, साज श्रृंगार शायद उससे ज्यादा होता है, लेकिन यहाँ खुले मन से स्वीकार कर रही हूँ कि वह चहक, वह उत्साह, उस प्रफुल्लित घर के वातावरण का सर्वथा अभाव है क्यूंकि मेरे दो प्यारे बेटे हैं , बेटियाँ नहीं। एक बेटी माँ के लिए क्या होती है, ये किसी भी स्त्री को बताने की बात नहीं है.… ये एक बंधन है प्यार का। तो आज का यह दिन सभी प्यारी प्यारी बच्चियों के नाम.… और मेरी सभी बहनों और माताओं को करवा चौथ की ढेर सारी बधाई और शुभकामनायें।
'डॉ रागिनी मिश्र '