थोड़े दिनों पहले अपने ब्लॉगर मित्र श्री अमित कुमार श्रीवास्तव जी ने लिखा कि 'स्त्रियाँ हास्य--व्यंग्य क्यों नहीं लिखती हैं'........बात दीगर लगी .सोचा कुछ हँसी का लिखा जाए।.....लिखा,, मिटाया,, फिर सोचा इसमें हँसी तो आ ही नहीं रही है,.व्यंग्य भी नहीं दिख रहा है,....दिख रहा है तो सिर्फ कटाक्ष .....फिर सोचने लग पड़ी कि बात सत्य है 'ये हास्य कहाँ चला गया है हम स्त्रियों की जिन्दगी से?'......हम हँसते तो खूब जोर--जोर से हैं, महफ़िल गूँज जाती है, तो क्या सब बनावटीपन है, अगर नहीं तो अमित जी के प्रश्न का उत्तर कहाँ है?
जीवन की उठापटक जितना स्त्रियों को प्रभावित करती है उतना शायद पुरुषों को नहीं करती .....शादी के बाद से ही नए परिवेश को समझना,, उसमे ढ़लना,,नयी--नयी जिम्मेदारियों का निर्वहन,,नयी जिन्दगी को संवारना ......सब नया--नया ..स्त्री वह नहीं रह जाती जो शादी के पहले रहती है...उसका वह चंचल मन एकदम स्थिर हो जाता है, उसका बेबाकपन शालीनता में तब्दील हो जाता है।....सब polished .....धीरे--धीरे यही उसका lifestyle बन जाता है,सब उसका यही रूप पसंद करते हैं इसलिए इसी बनावटीपन में वो सहज रहती है लेकिन वास्तविक सहजता गायब हो जाती है और एक मनुष्य की सहज अन्तर्निहित प्रवृत्ति का अंत हो जाता है, और चूँकि वह हर काम दिलो--जान से करती है,, इसीलिए हास्य--लेखन नहीं कर पाती है।.....क्योंकि हँसना तो बिलकुल निर्झर की तरह है ......साफ़,,उन्मुक्त,,कल--कल,,कुल--कुल .......