गुरुवार, 1 दिसंबर 2011

विवाह-भोज बनाम पर्यावरण

 अभी-अभी एक परिचित के बेटे के विवाह-भोज का आनंद उठाकर घर वापस आई हूँ. बहुत मज़ा आया. बच्चों ने खूब मस्ती की. आजकल शादियों में खाने से ज्यादा स्नेक्स पर जोर रहता है. तरह-तरह के "स्नेक्स"....फ्रेंच-फ्री,चीज़ -बोल्स, स्प्रिंग-रोल, कबाब,पनीर-टिक्का...सब कुछ मजेदार सौस और चटनी के साथ. यहाँ भी ये सभी कुछ था..ढेर सारे लड़के हाँथ में "ट्रे" उठाये सबके सामने पहुँचते और हम सभी पूरी नफ़ासत के साथ एक 'पेपर-नेपकिन' उठाकर उस पर कभी पनीर-टिक्का तो कभी कबाब रखकर खाते और फिर पूरी उँगलियाँ पोंछकर ज़मीन पर डाल  देते..हर स्नेक्स, हर बार नए नेपकिन पर....करीब सात सौ लोग...पाँच प्रकार के स्नेक्स...लगभग सभी ने हर तरह के स्नेक्स का आनंद उठाया और एक बार नहीं, बल्कि कई-कई  बार .....ज़रा हिसाब लगाइए कितने पेपर-नेपकिन थोड़ी सी देर में कूड़े की भेंट चढ़ गए...सोचिये आजकल शादियों का मौसम है और स्नेक्स का फैशन है ......कितने पेड़ काटेंगे इतने पेपर-नेपकिन के लिए....???      ये शादी है, अच्छा है...पर पर्यावरण??                      

शुक्रवार, 26 अगस्त 2011

Corruption ..... Ka Bharat main Janm


Mhatama Gandhi made a public a letter he received in 1948 from an irate citizen in Andhra: " The taste of Political power has turned their heads. Several of MLAs and MLCs are making hay while sun shines, making money by the use of influence even to the extent of obstructing the administration of justice in criminal courts presided over by magistrates........A strict and honest officer cannot hold his position......( Quoted by Umesh Anand, in The Times of India, March 7, 1996)

Over Eighty Thousand cases of Corruption were refferred by the Vigilance Division of the Government to the Home Ministry for further investigation between the years 1956 and 1964.In 1964 Santhanam Committee Report on Prevention of Corruption recorded " It was represented to us that corruption has increased to such an extentthat people have started losing faith in the integrity of public administration. ( GOI, Ministry of Home affairs, Report of Committee on Prevention of Corruption (New Delhi, 1964) pp12,13,101 .)

In 50's The Scandals which were well publicised involved the people who were in the highest quarters of Nehru Govt. T.T Krishnamachari, Nehru's Finance minister was involved in the Mundhra case in which the Life Insurance Company was loser by over Cone Crore rupees.Krishna Menon was in Shade in the Jeep Scandal, in which hefty orders were placed with adubious firm in Britain ..NEHRU PUBLICALY GAVE A CLEAN CHIT TO BOTH.

In 1969 it was revealed that Jagjivan Ram, A Cabinet minister In Indira Gandhi's government and one of her chief lieutenants in the party had not filed his Income Tax returns for the last ten years. This revelation was made by no less a person than the Finance minister, Mr. Morarji Desai. ( Mrs. Indira Gandhi nonchalantly dismissed the entire incident as the pardonable forgetfulness of a busy man)

On 24 May 1971, Nagarwala was handed over Rupees sixty Lakhs by the Chief Cashier of SBI, Ved Prakash malhotra, who said that he did this on the instructions received over phone from the Prime Minister herself.Nagarwala was arrested and in flat three days trial he was sentenced to four years rigorous imprisonment. In jail Nagarwala retracted his confession and asked for retrial. But before it could be considered he died of Heart attack in jail in March 1972. The Police officer who was investigating this case also died in a car Crash.

In 1971, Sanjay Gandhi, was selected by her Government as the only applicant to be awarded the licence to manufacture 50,000 Maruti cars a year.  Chief Minister of Haryana, Mr. Bansi lal acquired 300 acres of land on the out skirts of Delhi at artificially low prices in violation of a regulation that prohibited plant construction within thousand metres of a defence installation.

In 60's Nehru had labelled this the " atmosphere of Corruptio" : " people feel they live in an atmosphere of corruption and the get corrupted themselves. The man in the street says to himself : " Well , if everybody seems corrupt, why shouldn't I be corrupt ?" (Quoted in R.K Karanjia, The Mind of Mr. Nehru ( London, 1960) p.61)

These are excerpts from THE GREAT INDIAN MIDDLE CLASS  BY Pavan K. Verma  p86-90.

So Today's Congress Government ( The Mother Of Corruption) vouches that it will annihilate its own baby, very stange in Indian context Mother killing its own baby whom it has been nurturing for 60 years. Really its a tough decision, probably thats why they are trying all their tricks to avoid or circumvent the issue

शनिवार, 14 मई 2011

स्पर्श

स्पर्श ............
कौन सा प्रथम?
मन का या
तन का?

 

ये तो नहीं जानती
पर 
जो ............
छू जाए,
वही ..........
प्रथम,
अंतिम,
जीवन-पर्यंत
और
मरणोपरांत भी............

रविवार, 8 मई 2011

"माँ!.....मुझे तुमसे कुछ कहना है"

 सुबह से लोगों के सन्देश आ रहे हैं......"हैप्पी मदर्स डे"...........अभी तक मैंने किसी को भी जवाब नहीं दिया है और न ही अपनी माँ को बधाई दी है.......और न ही दूँगी.इसलिए नहीं कि उससे प्यार नहीं करती बल्कि इसलिए कि; सिर्फ एक दिन  ही माँ के नाम नहीं करना चाहती, बल्कि जितने दिन मैं इस धरती पर साँस ले रही हूँ उतने दिन उसके नाम ..... इसलिए बधाई देकर उसके नाम के असीमित दिनों को सीमा में नहीं बांधना चाहती.
                                लेकिन आज तुमसे कुछ पुराना,दबा हुआ दर्द बताना चाहती हूँ....जो जीवन के चालीस वर्ष पूरे करने और दो बच्चों की माँ बनने के उपरांत भी कह न सकी...."छह दिसंबर सन उनीस सौ सत्तर....मेरे जन्म के छह माह के बाद ही तुमने मुझे "बाबा-दादी" के पास पालने के लिए इलाहाबाद छोड़ दिया ...."क्यों"? जबकि दीदी और भैया तुम्हारे प्यार भरे आँचल तले पले...थोड़ा सा होश संभाला तो हमेशा तुम्हारे साथ लखनऊ आने वाली ट्रेन में अपनी छोटी सी संदूकची लेकर बैठ जाती लेकिन तुम जानबूझकर हमेशा रात १०.४० वाली ट्रेन से जाती...मैं अबोध ट्रेन में ही सो जाती और सुबह खुद को इलाहाबाद के अपने खटोले पर ही पाती..थोड़ा सा रोती और फिर बाबा के दिए 'लड्डू-बर्फी' और अम्मा  के लड़ियाने में सब भूल जाती. फिर बाबा कहते 'चलो अपने मम्मी-पापा को चिट्ठी लिखकर बोलो कि तुम्हे लेकर क्यों नहीं गए'? तुम जवाब देती कि "तुम्हें अम्मा-बाबा लाने ही नहीं देते"......मैं कुछ समझ न पाती लेकिन शाम को बाबा के साथ लोकनाथ की चाट,रबरी और फ्रूट-आइसक्रीम खाकर मस्त हो जाती और बाबा के समझाने पर समझ भी जाती  कि 'चलो दीदी-भैया को ये सुख कहाँ नसीब'......बहुत सेवा करती थी अम्मा-बाबा की.हाँ! पूरे घर की जान थी मैं. बहुत गर्व था बाबा को मुझपर.
                                          जब कभी मेरा तुम्हारे पास आना होता तो हमेशा तुम्हारी आँखों में मेरे लिए एक "स्पेशल ट्रीटमेंट' का भाव होता..क्यों? मैं उस सहज प्यार से तब भी  वंचित ही रह जाती;जो दीदी और भैया  को मिलता था....पूछने पर तुमसे जवाब मिलता "कल को तुम फिर अपने घर अपनी अम्मा के पास चली जाओगी".........और अम्मा से इसी प्रश्न का ये जवाब मिलता कि "बिटिया तुम कभी-कभी ही अपने घर जाती हो न इसीलिए तुम पर  विशेष ध्यान दिया जाता है"......मैं कभी किसी से न कह पाती कि मुझे कहीं से कुछ भी विशेष नहीं चाहिए .....अम्मा! न तुमसे और मम्मी! न तुमसे.
                                        पढ़ने में शुरू से ही तेज,बात-चीत में सबको आकर्षित कर लेने वाली,किसी भी तर्क में सबको पछाड़ देने वाली,घर के काम-काज में निपुण होती चली गयी..अम्मा ने मुझे बहुत कायदे से सब कुछ सिखाया लेकिन मम्मी! वो कभी मेरे दुखी होने पर रोओई नहीं, मेरे बालों पे प्यार से हाँथ नहीं फिराया.....जबकि तुम सब कुछ दीदी और भैया के साथ करती थी.मुझे हमेशा अकल दी गयी,सुविधा मुहैया कराई गयी, किसी भी समय कुछ भी मांगने पर पूरा  किया गया..........लेकिन नहीं मिला तो तुम्हारा प्यार भरा आँचल.....
                                         समय बीतने पर शादी के बाद विवेक के प्यार ने जीवन की रिक्तता को भर दिया...शिवा के जनम के बाद तो मानों मैं इस दुनिया की सबसे खुशनसीब "माँ" बनी लेकिन "शौर्य" के जनम के बाद नौकरी,घर और दो-दो बच्चों को पालने में जो मशक्कत झेली तो अतीत के तुम्हारे मुझे न रख पाने के दर्द को महसूस कर सकी ....उस दिन तुमसे कोई भी शिकायत न रही..डेढ़ साल तुम्हारे पास ही शौर्य को रखा और शायद मन को सुकून हुआ....लेकिन फिर अपने बचपन के भाव को याद करके ही उसे तुम्हारे पास से वापस ले आई .....अब तुमसे  कोई शिकायत नहीं है. अब सिर्फ एक याचना तुमसे और उस परम पिता परमेश्वर से है............जब-जब, जो-जो जनम मिले; माँ के रूप में तुम ही मिलो....क्योंकि मुझे अपने हिस्से का सारा प्यार चाहिए और एक संतान के रूप में मैं  भी तुम्हें वह सुख दे सकूं जो तुम्हें मेरे द्वारा मिलने चाहिए थे.................बस और कुछ नहीं कहना है मुझे  तुमसे.

बुधवार, 27 अप्रैल 2011

मेरे लिये

नशे की वजह हो तुम मेरे लिए,

नशे की दवा भी तुम मेरे लिए....


              {१}

रात भी तुम,  दिन भी तुम,

और दिन का आतप भी तुम,

ग़र धूप हो तुम;तो घनी धूप में,

सघन छाँव भी तुम मेरे लिए....


                {२}

क्या कहूं कि क्या-क्या हो तुम,

ग़र हो तुम मेरे लिए तप्त मन;तो,

जीवन-मरू के इस तपते मन में,

शीतल चन्दन भी तुम मेरे लिए..... 


मंगलवार, 26 अप्रैल 2011

सिर्फ तुम से

 {१}

ग़लती ना होते हुए भी,

इलज़ाम लगाया तुमने;

और हर बात पे;बिन बात पे

मुझको रुलाया तुमने ....


हम तो सब भूल गए थे,

तेरी मुहब्बत के साए में;

पर ना जाने कौन सा ,

ये बदला चुकाया तुमने....

          {२}

अब तो उन हालातों पे भी 

रोना आ जाता है मुझको,

तेरे बानक से; तकदीर ने 

जो-जो दिखाया मुझको....



फिर से दे दे अपना हाथ;

तू खुद ही हाथों में मुझको,

कि, संग तेरे जिंदगी में;

आगे चलना है मुझको....


           {३}

जिंदगी की उदास  राहों से;

चुन लूंगी सारे गम के कांटे,

मैं तो  तेरी हर  राह  में, फूल 

बिछाने  की बात करती हूँ ....


जिंदगी में ना होगा कोई;

दर्द  ना  ग़म ना बेईमानी,

और  ना ही  कोई शिकायत 

तहेदिल से ये वादा करती हूँ ....

सोमवार, 25 अप्रैल 2011

Parivartan

Jeevan mein jab kabhi parivartan aana hota hai, toh Prabhu hame pehle hi uske baare mein ingit kar deta hai. woh hame kisi na kisi madhyam se aane wale samay k liye paripakwa karta hai, phir chaahe uske liye woh koi bhi raasta chune.........sahi hi hota hai. Bahot saare log aksar kuchch karne{jo saamajik drishti se anuchit ho} ke baad usko apni galti maante hain............yeh uchit nahi hai. Hamen us kritya ke nihitaarth ko dekhna chaahiye. Aksar jo siksha hamen maa-baap, bhai-behan,pati-patni aur gurujanon se nahin mil paati hai woh kisi anya maadhyam se milti hai ya phir paristithi sikha deti hai. Kuchch log ise ' raaste ke hamsafar'  hone ka naam dete hain.........yeh nitant ghatiya hai lekin wartmaan samay mein ise 'practical approach' kehte hain..............jab hamhari zindgi mein koi shamil ho gaya toh ho gaya........phir chaahe woh guru ho,mitra ho ya shatru.
                                                         Hamen sada aane wale samay ka swagat karna chahiye.............achcha ya bura.........woh samay hamari apni kismat ka hota hai , haan! achcha samay samapt jaldi ho jaata hai aur bura bitaye nahi beetta lekin jo niyati mein likh diya gaya hai usko agar sahajta se sweekaar kar len toh hi aage badhne mein safal honge anyatha pareshaan hote rahenge.
                                                         Ek baat...........jo hum hamesha padhte,sunte chale aa rahen hain ki............'yadi koi dil k kareeb ho toh usko apne se door nahin jaane dena chahiye'...........ekdum theek hai lekin ho sakta hai paas rakhne se woh door ho jaaye.Aisa sabke jeevan mein hota hai hum niyati ke virudh jaakar agar kuchch pana chahten hain toh dukh hi prapt hota hai. Isliye hamesha sahi samay per kaarya kar lena chahiye, kyonki..............................mai wohi aur tu wohi,lekin samay raha ab woh nahin. Samay se jyada nishthur aur kathor koi nahin.Woh apni upeksha ka badla leta awashya hai.
                                                        

प्रेम

मानव जीवन में प्रेम का अत्यंत महत्वपूर्ण है . वह प्रेम के बिना अपना जीवन नहीं व्यतीत कर सकता है .किसी के जीवन में ये कम और किसी के जीवन में अधिक होता है .जिनके जीवन में ये कम होता है ,वह अक्सर  नकारात्मक वृतियों से घिरे रहतें हैं एवं  दूसरों के खुशहाल  जीवन को देखकर ईर्ष्या की अग्नि में जलते रहते हैं .प्रेम एक ऐसा भाव है जो मनुष्य को 'इंसान'बनाने में सहायक होता है .परन्तु जीवन में ये भाव उसी व्यक्ति में होता है जो स्वयं से प्रेम करता है ,जो स्वयं से प्रेम करता है वो समस्त प्राणियों ,प्रकृति से प्रेम कर सकता है .यह एक    सहज भाव है .बहुत सारे व्यक्ति अक्सर यह कहते मिल जाते हैं कि प्रेम जीवन को बर्बाद कर देता है, ऐसा वो सोचते हैं जो बीमार मानसिकता के होते हैं और जिनके लिए प्रेम मात्र शारीरिक आकर्षण होता है .जहाँ प्रेम मन से आरम्भ होता है वहां तो मन के साथ शरीर का मिलना एक सहज प्रक्रिया होती है और तभी प्रेम अपने पूर्ण रूप में
प्रदर्शित होता है.  यह  प्रेम किन्ही दो व्यक्तियों  के मध्य का समीकरण होता है . यही समीकरण व्यक्ति को अन्य व्यक्तियों से प्रेम करने के  लिए प्रेरित करता है और यहीं से आरम्भ होती है 'वसुधैव कुटुम्बकम' की अवधारणा ..

एकाकीपन ( एक सकारात्मक चिंतन )

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है . उसे रहने  और पनपने के लिए एक वातावरण की आवश्यकता होती है . बिना संगी-साथी के उसे अपना जीवन रिक्त प्रतीत होता है, और यह रिक्तता कभी-कभी उसे हीन भावना से भी भर देती है .वह भटक उठता है किसी मित्र की तलाश में . पर यह आवश्यक नहीं है कि उसे वह मिल ही जाए या फिर जो मिले उससे उसके मन के तार जुड़ ही जाएँ और वह इस अकेलेपन की दुनिया से बाहर आ सके.
इसलिए यदि हो सके तो उसे उस अकेलेपन का सम्पूर्ण सदुपयोग करना चाहिए .मनुष्य अपने जीवन में कई ऐसे अपनी रूचि के काम करना चाहता है जिनको वह समय और परिस्तिथियोंवश नहीं कर पाता है. उन सभी कार्यों को अपने अकेलेपन का साथी बनाकर वह जीवन में "परफेक्ट" बन सकता है और अपने आप से खुश और संतुष्ट हो सकता है.
हमारे मन का वह कोना जो नितांत निजी होता है, उम्र बढ़ने के साथ-साथ हम उसमे झांकना भूल जाते हैं....अपनी जिम्मेदारिओं का लबादा ओढ़े हम अपने अलावा सबके पास होते हैं . समय बढ़ने के साथ जब वह सब हमसे दूर हो जाते हैं तो हमारा नकारात्मक भाव से ग्रस्त हो जाना स्वाभाविक ही है .
वर्ष भर हर तीज-त्यौहार में हम अपने घर का कोना-कोना साफ़ करते हैं और कामना करते हैं कि घर में खुशहाली रहे .फिर.....
मन का वह कोना ,अपना कोना...... क्या हमें समय-समय पर साफ़ नहीं करना चाहिए? अवश्य करना चाहिए.....क्योंकि हमारी उत्पत्ति एक स्वतंत्र व्यक्ति के रूप में हुयी है ...अतः अपनी जिम्मेदारियों का निर्वहन करते हुए यदि अपने व्यक्तित्व का भी सर्वांगीण विकास किया जाए मनुष्य ना केवल सदेव खुशहाल जीवन जियेगा बल्कि कई ऐसी कलाएं सीखेगा कि अकेलापन उसको कभी काटने नहीं दौड़ेगा ......और अंत में वह मृत्यु भी सुखद ही प्राप्त करेगा क्योंकि अपूर्णता व्यक्ति को अंतिम समय में भी सताती है.
अतः हम सबको अपने मन के उस कोने क़ी आवाज़ को अकेले में सुनना है और सुनकर समय का सही उपयोग करने निकल पड़ना है और सच में तभी सार्थक एवं पूर्ण होगा हमारा ............'अस्तित्व'

रिश्तों का समीकरण

 ' मुझसे तेरा कुछ रिश्ता है ,मन इतना ही गुन पाया है
                     है तेरा मेरा रिश्ता क्या ,मन अब तक ना सुन पाया है '
अक्सर ही हमारे जीवन में कुछ ऐसे व्यक्तित्व आते हैं कि वहां  हम अपने मन को बंधने से रोक नही पाते हैं. ना जाने कितने ही ऐसे रिश्तें हम अपने जीवन में जीते हैं ....जो हमारे मन के बेहद करीब होते हैं. परन्तु ध्यान देने योग्य बात यहाँ पर यह है कि हम ऐसे रिश्तों को क्या रूप देना चाहते हैं?. आरम्भतः यह रिश्ते  आकर्षण और बात-चीत के माध्यम से ही बनते हैं ....विचार मिलते हैं .....एक दूसरे के प्रति आदर की भावना पनपती है ....फिर प्रेम. यह रिश्तों का जोड़ बिलकुल गणित की ही तरह होता है ....हमें इसकी जानकारी अवश्य ही होनी चाहिए. यह १००% सत्य है कि बिना किसी भावना के हम किसी की तरफ आकृष्ट  नहीं हो सकते...हाँ! आगे चलकर यह भावना क्या रूप लेती है, यह ध्यातव्य है .
हम अक्सर अपने मन को धोखा देते हैं  या यूँ कहे कि समझ ही नहीं पाते हैं की जो सम्बन्ध  बन रहा है वह दोस्ती है या फिर प्यार? इसलिए सर्वप्रथम मन को साफ़ आईने की  तरह रखें कि ठीक-ठीक दिखाई दे, अन्यथा बाद में अफ़सोस भी करना पड़ सकता है . जहाँ सिर्फ बात-चीत है वहां कल दोस्ती भी हो सकती है और जहाँ दोस्ती है वहां प्यार भी पनप जाता है .यह एक अनकहा सच है कि प्यार मनुष्य कि सर्वकालिक आवश्यकता है . और दोस्ती भी.
दोस्ती तीन प्रकार की हो सकती है -------{१}सामान्य ....जहाँ दो व्यक्ति एक-दूसरे की आवश्यकता बनकर साथ निभाएं.
                                                      {२}विशेष........जहाँ दोनों एक दूसरे के पूरक बन जाएँ .
                                                      {३}असाधारण...जहाँ दो विपरीत विचारधारा वाले व्यक्ति परस्पर आकृष्ट हो.
सामान्य अवस्था वाली दोस्ती अक्सर पड़ोस, कॉलेज या ऑफिस से आरम्भ होती है और  सहज रूप में चलती रहती है , क्योंकि यह  दोस्ती हमारी आवश्यकता की होती है. इसके बिना हम अपने रोज-मर्रा के जीवन में असहजता महसूस करते हैं  इसमें आकर्षण का कोई तत्त्व ना भी हो तो भी यह चलती रहती है .इसमें एक जिम्मेदारी की भावना हमेशा रहती है ....असाधारण प्रकार की दोस्ती किसी विरोधी आकर्षण  से प्रारंभ होती है , यह अत्यंत तीव्रता और  आसानी से हो जाती है ,जो खूबी स्वयं में ना हो और दूसरे में दिखाई दे तो आकर्षण स्वाभाविक है परन्तु  इसके टूटने की सम्भावना भी  हमेशा ही बनी रहती है. दो विपरीत विचार अक्सर टकराव का कारण बनने लगते हैं...वह एक-दूसरे में सुधार करना और देखना दोस्ती के आवश्यक नियम मानने लग जाते हैं .शुरू में यह अच्छा लगता है लेकिन बाद में भार सदृश प्रतीत होने लग जाता है ..परन्तु विशेष अवस्था वाली दोस्ती कुछ विशेष ही होती है.यहाँ एक-दूसरे को समझने और जानने के साथ-साथ आदर और प्रेम की भावना भी रहती है....यहाँ व्यक्ति को सुधारा नहीं जाता बल्कि उसे सुना और समझा जाता है और वास्तव में हर मनुष्य अपने जीवन में इसी प्रकार की दोस्ती की चाह करता है. यह समय के साथ और परिपक्व होती जाती है  और यही एक अच्छा और
सच्चा रिश्ता है ......एक दूसरे के अस्तित्व को सम्मान देने का ...
इस दोस्ती को यदि जीवन-साथी के साथ देखना चाहे तो तीन बाते समझनी पड़ेगी ........यदि प्रथम दोस्ती arrange
शादी है तो दूसरी प्रकार की लव,......परन्तु हर कोई अपने जीवन साथी के साथ तीसरे प्रकार की ही दोस्ती चाहता है और इसी के साथ ही जीवन सुखमय बनाया जा सकता है.....
उपरोक्त तीनो प्रकार हम  अपने भीतर पा सकते हैं ...अतः रिश्तों को समझकर उनका निर्वहन करे तो  जीवन को सहज और सुखमय बनाया जा सकता है.....
                                            " है तू मेरा ही प्रतिबिम्ब, यह अब मन मेरा गुन पाया है                                                   
                                              क्योंकि मेरे मन की धुन ,तो तेरा ही मन सुन पाया है
                                              होना ना मुझसे विलग कभी, मन तुमसे अब ये कहता है
                                              गर मैं हूँ तेरी परछाई , तो तू भी तो मेरा हमसाया है.... "

इंतज़ार (कहानी )

आज सुबह से ही गीत बेचैनी से इधर-उधर कर रही थी. कैलेंडर में देखा ...एक अक्टूबर ..आँखों से उतरकर दिल में पहुँच गयी...एक अक्टूबर. बिताये नहीं बीतता उससे ये दिन. जाने किसका इंतज़ार रहता है उसे? और क्यों ?...वह तो  ये  भी  नहीं  जानती. दिमाग अनवरत अतीत में गोते   लगा रहा है  ....जब वो राज से मिलने उसके पास गयी थी .हाँ! राज ही तो था वो.समझ ही न सकी थी वो राज के मन की बात को ...हमेशा ही एक आवरण में जीने वाला ..और वो हमेशा ही पहाड़ी नदी की भांति  बेरोक-टोक स्वयं  रास्ते निकालकर  बहनेवाली .निश्छल,कल-कल खुल-खुल ..
.
"क्या हो रहा है"?
"कुछ नहीं ..बस तुमसे दूर जाने की सोच रहा हूँ "
"क्यों"?????चिल्ला पड़ी वो
"सोचता हूँ तुम्हारी परेशानियाँ ना बढ़ाऊ"
"क्या? कैसी परेशानी?"
"तुम नहीं समझोगी"..वो गंभीरता से बोला
" हाँ,हाँ! पागल हूँ मैं, जो ना समझूँगी .....पूरी दुनिया की अकल तुम्हारे पास ही तो है ...जो मर्ज़ी वो करो"
.कहकर गुस्से में पैर पटकती हुई अपने घर वापस आ गयी थी. काश रोक लिया होता उस दिन उसने राज़ को  जाने से.
अतीत के गह्वर से बाहर आ गयी.अपने मन को अपने नियंत्रण में करना आ गया है उसे अब. पहाड़ी नदी पर डैम  बना लिया है उसने या यूँ कहे कि समय ने सिखा दिया है.

सारे दिन कॉलेज में भी अन्यमनस्क रही वह....जितना भूलने की कोशिश करती उतना ही कमबख्त याद पीछा नहीं छोडती.किसी तरह समय पूरा होते ही वह कॉलेज से निकलकर सीधे मंदिर की तरफ बढ़ चली .....भगवान्  के पास रोने नहीं...बल्कि उस जगह राज़ की मौज़ूदगी  महसूस करने। कितना बदल दिया है आज उसे राज़ के उस प्यार ने जिसको वह कभी खुद पहले इस तरह से महसूस ना कर सकी थी। थोड़ी देर मंदिर में बैठी ....दर्शन किये ...दुआ भी की राज़ की खुशहाल जिंदगी के लिए .....हर जगह था राज़ उसके लिए....मंदिर की उस बेंच पे भी  जहाँ बैठकर उसने अपने जोते-मूज़े उतारे थे .     

पहली बार अपने घर के बाहर मिली थी उससे  वो ........कितना हेंडसम दिख रहा था.....सफ़ेद शर्ट और नीली जींस में
..पलटकर देखा था उसने भी उसे अपनी "इंडिका" में घुसते हुए...एक ठहराव था उसकी निगाहों में...सबका ही ध्यान रखनेवाला,एक अच्छे दिल का मालिक था वो...पर जाने क्यों वही नहीं समझ सकी थी उसे ....

"क्या कर रही हो गीत?"

फोन उठाते ही राज़ ने पूछा.
"कुछ भी तो नहीं"
"चलो कहीं घूम आयें"
"पागल हो क्या"?
चिल्ला पड़ी थी वह ....कितना गन्दा है ...च्छी-छि...ज़रा सा हँस कर बात क्या कर ली सर पर ही चढ़ गया ....अभी घर पे सबको पता चलेगा तो तूफ़ान ही आ जाएगा .......सब उसे कितना मान देते हैं...नहीं बात करूंगी कभी उससे
क्या पता था कि बात करे बिना रह ही ना पायेगी वह ....यही तो प्यार था ...जिसका एहसास बहुत  बाद में हो पाया .. और आज  वह उन सब बातों के लिए तरसेगी  जिनको कभी वह नज़र-अंदाज़ कर दिया करती थी ...

हमेशा ही राज़ ने उसकी ख़ुशी का ध्यान रखा था....जब भी उसने बुलाया वह तुरंत ही जिन्न की तरह हाज़िर हो जाता था....जब तक चाहती तब तक बैठा रहता...हमेशा ही उसके आने से घर का माहौल खुशनुमा हो उठता. "मेरे पास बहुत पोसिटिव -अनेर्जी है".........हँसकर कहता था. घंटों बैठकर अच्छी -अच्छी बातें सुनाता सबको.


लेकिन शिकायत गीत को उससे भी है. एक बार भी अपने दिल की बात नहीं बताई उसने.....अगर बता देता तो हर परेशानी का हल ढूंढ लेने वाली गीत इसका भी समाधान कर देती.....

"मेरे आने से परेशानी बढ़ गयी ना तुम्हारी?"
गीत  ने कितने सहज भाव से पूछा था और उसने कितनी गंभीरता से कहा था......
"हाँ"
"मेरी भी"
गीत ने चिढ कर कहा था.....पर वह तो जाने क्या समझ बैठा और आज इतनी दूरी आ गयी एक नासमझी के कारण.

क्या प्यार ऐसा ही होता है जब   वह हमारे पास होता है हम उसे समझ नहीं पाते और जब वह हमसे दूर चला जाता है तब एहसास जाग जाता है? समय रहते हुए भगवान यह ज्ञान क्यों नहीं दे देता है? जाते समय उसकी आँखों में जो भावपूर्ण पीड़ा थी ...उसका एहसास आज हो रहा है उसे. अपनी ही धुन में हमेशा जीने वाली गीत को पता भी ना चला और राज़ उसकी जिंदगी से बहुत दूर चला गया.....लेकिन चले जाने के बाद आज भी हर रोज़, हर कदम, हर घडी वह उसके साथ रहता है .....और वह उसे महसूस करते हुए अपनी जिंदगी को ख़ुशी-ख़ुशी जीने में लग जाती है ......लेकिन रोज़ ही उसका इंतज़ार भी करती है...उसे आशा ही नहीं विश्वास भी है उसके वापस लौटने का .......................क्योंकि आज वह जान चुकी है कि अगर वह यहाँ परेशान है तो वह भी  उसे याद करता होगा ........... उस समय का इंतज़ार तो उसे करना ही है ...उसे बहुत कुछ बताना भी है राज़ को....शिकायत भी करनी है ....उसके कंधे पर सर रखकर रोना भी है .......   . नहीं .....रोएगी नहीं...रोने से राज़ को गुस्सा आ जाती है .....इसलिए हँसकर ही उसका स्वागत करेगी वह ... ..............मंदिर की उस बेंच से उठकर थके हुए कदम लगभग घसीटते हुए घर की तरफ चल पड़ी ..म्यूजिक सीडी  बेचने वाले मिश्राजी क़ी दुकान से गाने की आवाज़ आ रही थी .........."तुम्हारा इंतज़ार है तुम पुकार लो ............".

 ..........................डॉ रागिनी मिश्र .............................