रविवार, 17 नवंबर 2013

''यारों दोस्ती बड़ी ही हसीन है''

                                ''अबके बिछड़े हुए शायद कभी ख्वाबों में मिलें
                                   कि जैसे सूखे हुए फूल,,,, किताबों में मिलें'',……
अभी अलविदा मत कहो दोस्तों, ना जाने  कहाँ फिर मुलाक़ात हो'' ………माह फरवरी … १९८६, तारीख याद नहीं, जब ये गाना मैं अपने स्कूल की farewell party में गा रही थी तो मुझे खुद नहीं पता था कि जिनके साथ १२ सालों से पढ़ रही हूँ , उनसे दुबारा मिलने में २७ साल का लम्बा समय खिंच जायेगा। उस समय  facebook और mobile तो छोड़िये landline भी कुछ घरों में हुआ करती थी.. इण्टर करने के बाद मैं लखनऊ आ गयी और सबसे नाता पोस्टकार्ड तक सिमट के रह गया. हम सब एक-दूसरे को कुछ समय तक नियम से ख़त लिखते रहें लेकिन मैं ठहरी किताबी-कीड़ा और B.A. कर रही थी मम्मी के कॉलेज से तो, फिर तो पूछो ही मत. सब काम बंद और पढाई, खेल-कूद,एन.सी.सी,प्रतियोगिताएं .… बस और हाँ थोड़े से नए दोस्त। धीरे- धीरे ३-४ साल के अंतराल पर कभी किसी का तो कभी किसी का शादी का कार्ड आ जाता पर हम स्त्रियां ( तब लड़कियां) कितनी बे-बस होती हैं कि बस .......... किसी की भी शादी में नहीं जा पायी। मीना, श्रद्धा, अंजू, रजनी सबकी ग्रेजुएशन करते ही शादी हो गयी और सब अपने-अपने घर-संसार में मस्त और व्यस्त हो गयीं और मैं अपने आगे की पढाई में.…। सिर्फ अल्का  थी जिसने  सबकी शादी में मस्ती की और वही १९९५ में मेरी शादी में आयी। बस उससे वह आखिरी मुलाकात थी क्यूंकि १९९६ में उसकी शादी के समय मैं माँ बननेवाली थी और मेरी स्थिति जानेवाली नहीं थी.…………। सब इधर-उधर, किसी को किसी की  नहीं थी खबर। ……
                                      ।
                                       फिर दिसम्बर २००५ में अचानक मीना का सन्देश आया कि वह मुझसे मिलने लखनऊ आ रही है. जाने  कितनी तैयारियाँ की मैंने। घर सजाया, तमाम खाने की चीजे लेकिन एक डर भी था मन में कि वह पहचानेगी कैसे? इतनी मोटी जो हो गयी हूँ मैं. लकिन उसके आने पर मेरे पैरों तलें जमीन सरक गयी. मेरे सामने दो लेडीज, दोनों मुझसे ज्यादा बलवान, मीना कौन?
                                     ''पहचानने से उसको आँखें कर रही थीं इंकार
                                       मन आप ही १० - २० कर रहा था बारम्बार
                                       कारण, आपस में नहीं था कोई भी मन-मुटाव
                                       ये तो था, बस्स, शरीर पर ढेरों चर्बी का पटाव''
स्थिति उसने ही सम्भाली और 'रगिनीइइइइइइइइइइइइइ ' कहते हुए अपने गद्दर बाहुपाश में मुझे लपेट लिया। दो दिन हमने साथ बिताये, बचपन लौट आया.…।   उसके दो बेटों और पति के साथ हम सब खूब लखनऊ घूमे।
 
                                          फिर अचानक इंटरनेट की  बयार चली ,फेसबुक की  लहर आयी लेकिन कोई ना मिला। ज़रुरत भी नहीं लगती थी. एक दिन मेरे पास एक लड़के रतन सक्सेना की request आयी, जाने कब तक पेंडिंग पड़ी रही..... accept करते ही मन बल्लियों उछल पड़ा।  अरीईईईईई ये तो श्रद्धा का बेटा है..... बस फिर क्या? लेकिन फिर वही स्त्रियों कि जिम्मेदारियाँ, आज अम्मा कि तबियत ख़राब, आज बेटे का इम्तहान और कभी मौसी के बेटे की शादी। मामला टाँय टाँय फ़िस्स।






                                         यहीं फेसबुक पर पिछले साल जनवरी में रजनी मिल गयी. वह बनारस में थी और हमें मार्च में बनारस जाना भी पड़ गया. वह हमें लेने आयी. उसकी तीन बेटियों के स्नेह में मैं अपने बेटी ना होने की कसक को भूल गयी. हम मात्र ५ घंटे साथ रहे लेकिन वह स्मृतियाँ आज भी अत्यंत मधुर हैं.




                                               हम सब फेसबुक से दूर ही रहते थे लेकिन जैसे बचपन में रटा था ''विज्ञान वरदान है या अभिशाप''…उसी तर्ज पर हम कभी-कभी एक दूसरे से chatting कर लिया करते थे और कभी-कभी फ़ोन पर बात। .... . लेकिन पिछले महीने श्रद्धा का का फ़ोन आया कि वह varoda से  allahabad  आ रही है और सबको आना है. अलका को जौनपुर से, रजनी को बनारस से और तुम्हे भी। यह फिर हम स्त्रियों के लिए मुश्किल की  बात थी..... देखा जाए तो मात्र ५ घंटों का सफ़र लेकिन सबको मैनेज करने में ही पूरा एक महीना गुजर गया और तय दिन के मुताबिक हम १३ नवम्बर को allahabad  के लिए चल दिए..... रजनी का फ़ोन आया कि उसके पैर में मोच आ गयी है वह नहीं आ पायेगी। बस में बैठने के पहले से ही पेट में तितलियाँ उड़ने लगीं, इतनी नर्वसनेस कि पूछो मत. जैसे कोई इंटरव्यू देने जा रही थी. जिस वोल्वो का टिकट बुक  था, वो कैंसिल हो गयी.… मुझे लगा हमारा मिलना अब ना हो पायेगा लेकिन पतिदेव ने हिम्मत बंधाते  हुए कहा, ''जाओ, सिर्फ ५ घंटे का सफ़र है, किसी भी बस से मुश्किल ना होगी''…। फिर क्या, चल पड़ी एक बस से, लेकिन भगवान् भी खूब चक्कर चला रहे थे, कुंडा के पास जाकर बस ख़राब हो गयी. उधर सबके फ़ोन पर फ़ोन.  सब मीना के घर पहुँच चुके थे और मेरा इंतज़ार कर रहे थे. मैंने बताया मुझे आने में देर हो जायेगी लेकिन किसी ने भी मेरे पहुंचे बिना चाय तक पीने से इंकार कर दिया था. मेरी बस ३.३० बजे सिविल लाइन्स बस स्टैंड पहुंची। बस ने हनुमान-मंदिर चौराहे पर ही उतार दिया, फ़ोन पर हम लगातार संपर्क में थे, उतरकर जैसे ही इधर-उधर देखा कि एक 'इनोवा' से 'रागिनी'-'रागिनी' की चिल्लाहट सुनी, गाड़ी पास ही आकर रुकी और श्रद्धा, मीना, अंजू, अलका सबने एक साथ मुझे बाहों में भर लिया , दो मिनट हम बिना किसी भी गाडी का हॉर्न सुने सड़क पर ही शांति से लिपटे खड़े रहे, आँखें सबकी नाम थी और गला रुंधा हुआ. पता चला कि श्रद्धा के मम्मी-पापा ने लंच का अरेंजमेंट किया है, हम सब उल्लसित मन से पहुंचे hastings  road ,उसके घर. पहुँचते ही आंटी अंकल और श्रद्धा के पति तथा दोनों बेटों  ने पूरे जोश और स्नेह के साथ हमारा स्वागत किया। किसी ने भी ४ बजे तक खाना नहीं खाया था मुझे ख़ुशी भी हुई और बुरा भी लगा कि मेरे कारण आंटी अंकल चार बजे तक भूखे रहे. घर की सजावट का तो कहना ही क्या। .... लगा जैसे सपनों के महल में हो और सबसे खास बात कि खाना अंकल और आंटी  ने खुद बनाया था, इतने नौकर चाकर के होते हुए भी उन्होंने अपने बेटियों के लिए  सब खुद किया था..... मन गदगद था और खाना अत्यंत स्वादिष्ट। उसके बाद हमने सिर्फ और सिर्फ मन भरकर मस्ती की. सब कुछ भूल गए हम कुछ समय के लिए।  कभी कोई किसी को प्यार कर रहा था तो कोई ताना मार रहा था, पुरानी  बातें, गाने, स्कूल के डांस, टीचर्स और न जाने क्या-क्या।।।।।।। सबसे बढ़िया बात, किसी ने भी अपनी वर्त्तमान ज़िंदगी, प्रोब्लेम्स, सास-ससुर का रोना कोई चर्चा तक नहीं। बस हम थे और हम थे। …… हमने अपनी मुलाक़ात कि पहली वर्षगाँठ मनायी केक काटकर, खूब मस्ती की। .... चाय आ गयी, पी ली, स्नैक्स आ गए खा लिए लेकिन मस्ती में कोई disturbance नहीं था , जिसके लिए हमने अंकल और आंटी को और भगवान् का जीभरकर आभार व्यक्त किया। । फिर हम निकले लोकनाथ कि तरफ, वहाँ कि मशहूर 'फ्रूट आइसक्रीम' खाने। जाने कितने ज़माने की  भूख थी कि शांत ही नहीं हो रही थी. फिर हम सिविल लाइन्स गए 'हनुमान मंदिर' वहाँ अपने मिलने के लिए उनका धन्यवाद किया और अपनी दोस्ती कि नज़र उतारी। सुबह ५ बजे श्रद्धा कि ट्रैन थीं  इसलिए उसे १२ बजे उसके घर छोड़ दिया। कोई गले नहीं लगा क्यूंकि हम सब दर रहे थे कि अब रोये तो बहुत बुरा लगेगा लेकिन आँखें  सबने पोंछी। फिर मैं मीना के घर अलका अपने मायके और अंजू अपने घर चली गयी , सुबह संगम के लिए निकलना था।








                                                                                                            क्रमशः
                       

शुक्रवार, 23 अगस्त 2013

मानव, मन, माया

होती हैं इच्छायें असीमित, मानव के इस मन की ,
पूरी करने में वह उनको, खोता सुध-बुध तन की। ……


चलता ज्यों कोल्हू का चक्कर,फिरता वैसे ही वह भी ,
मूँद आँख गिरता शिशु कोई ,  गिरता वैसे ही वह भी । …. 


जलकर गिरता रहे पतंगा , ज्यूँ दीपक के पीछे
मानव का यह मन भी भागे, आकर्षण के पीछे। ……


नाते-रिश्ते सब कुछ खोता, रोता ही रहता वह,
सब धोखेबाज भरे हैं जग में, गाता ही रहता वह। ….


स्वयं सशंकित रहता और, सबको भी भ्रम में रखता,
धन-संतोष भूल वह बस, माया- माया ही रटता। …….


जलता ही रहता हरदम वह, ईर्ष्या - द्वेष की ज्वाला में,
होता जाता आकंठ निमग्न, ठगिनी माया की हाला में.। …….  .….


पूरी  करने में हर इच्छा, अक्सर भूल वह जाता ,
लख चौरासी योनियों में, मानव-जीवन है पाता। …


 बैर भाव को भूल जब सबको,  स्वयं सदृश तुम पाओगे,
मन भरेगा धन-संतोष से तब, भव-सागर से तर जाओगे। …।


…………………। डॉ रागिनी मिश्र। ………………





रविवार, 18 अगस्त 2013

पिया! हमही तुमरा पियार हूँ, सजन! हमही तुमरी यार हूँ,


पिया! हमही तुमरा पियार हूँ 
हमहूँ का चितवो एक बार। … 
सजन! हमही तुमरी यार हूँ,
हमते बतियाओ तौ एक बार। …।

               (१ )



रोजै ही मन करत हमार 

फेंक देई मोबाइल तोहार 
चिपक के हरदम जेहिते तुम  
बातन का लगउते अम्बार,
मुला; हमते कुच्छो कहिते
मुँह जेइसे सिय जात तोहार,
ब्याह किये का उकै संग ?
की है तू भरतार हमार ?


                (२ )

फोड़ देई ई कम्पूटर का
घंटन करते ऊसे आँखें चार
फेसबुक और आरकुट  का
मरिबेइ जूता चार हज़ार
हरदम्मै ही चैट बाक्स पर
लागे सुंदरियन की कतार
करि देइब डाइल १०९० हम
अब तो सुधर जाओ सरकार। ….


पिया! हमही तुमरा पियार हूँ
हमका भी चितवो एक बार ,
सजन! हमही तुमरी यार हूँ,
हमते बतियाओ तौ एक बार। …।


                                             डॉ रागिनी मिश्र 


शुक्रवार, 26 जुलाई 2013

'' यात्रा अमरनाथ धाम की''

                                                      भगवान शिव के पवित्र धामों में 'श्री अमरनाथ धाम' का नाम सर्वप्रमुख  है। यहाँ पर पवित्र व्यास गुफा में प्रतिवर्ष प्राकृतिक रूप से बननेवाला 'हिमलिंग' भक्तों को अत्यंत कठिन रास्तों के बावजूद अपनी और खींच लाता है.  दुर्गम रास्ते, मनोहारी प्राकृतिक दृश्य और आंख मिचौनी खेलते मौसम के बीच शरीर को अत्यंत थकित कर देनेवाले सफ़र को पूरा करके भक्तगण जब 'बाबा बर्फानी' की गुफा पहुँचते हैं तो उनकी  आँखों से स्वतः ही ख़ुशी के आँसूं फूट पड़ते हैं, शरीर रोमान्चित हो उठता है और मन एकदम शांत। अमरनाथ की उस पवित्र गुफा में बाबा बर्फानी, माता पार्वती और प्रथम पूज्य गणेश जी के प्राकृतिक रूप से निर्मित हिमलिंग के दर्शन कर भक्तों का जीवन सफल हो जाता है . 

                                                                 प्रतिवर्ष जून माह में प्रारम्भ होनेवाली इस पवित्र यात्रा के लिए दर्शन हेतु जाने वाले व्यक्ति का चिकित्सीय परीक्षण अब अनिवार्य कर दिया गया है. 'श्री अमरनाथ श्राइन बोर्ड' ने हर शहर में ३-४ सरकारी अस्पतालों की सूची चिकित्सकों के नाम के साथ अपनी  वेबसाइट पर डाल रखी है. वहाँ यात्रियों की  हड्डी, ह्रदय, रक्तचाप, एलर्जी, नेत्र -परीक्षण तथा मधुमेह इत्यादि की निःशुल्क जाँच की जाती है जिसमे मानक पर खरे उतरने के बाद चिकित्सक द्वारा जारी किये गए प्रमाण-पत्र को दिखने के बाद ही यात्रा के लिए रजिस्ट्रेशन होता है. रजिस्ट्रेशन के लिए भी 'श्री अमरनाथ श्राइन बोर्ड' वेबसाइट पर कुछ राष्ट्रीयकृत बैंक की सूची है. वहां पर प्रतिव्यक्ति मात्र ३० रूपये का शुल्क जमा करके दर्शन की तिथि और रजिस्ट्रेशन कार्ड मिलता है. यहाँ पर यात्री को अत्यंत सतर्क रहने की आवश्यकता है क्योंकि जो तारीख मिलती है वह सिर्फ उसके दो दिन बाद तक ही मानी रहती है ना उसके पूर्व ना ही पश्चात। अतः यात्री अपनी ट्रेन, बस या हवाई जहाज की बुकिंग की अनुसार ही दर्शन की तिथि प्राप्त करें, ताकि संभावित परेशानियों से बचा जा सके.

                                       हम ट्रेन का सफ़र करके 'जम्मू' पहुंचे। प्राकृतिक सौन्दर्य से भरपूर जम्मू को 'कश्मीर का प्रवेश द्वार भी कहा जाता है. जम्मू के बाद ऊँचे-ऊँचे पहाड़ों के बीच सर्पीले रास्तों का सफ़र सभी को टैक्सी अथवा बस द्वारा ही करना पड़ता है. हमने  भी ऑनलाइन ही 'ट्रैवलर' बुक करवा रखी थी जिस पर सवार हम सभी चल पड़े कश्मीर की खूबसूरत वादियों का नज़ारा करने। सबकी निगाहें बस खिड़की के बाहर ही टंग गयी थीं और कानों में मानों 'अमीर खुसरो' की कही गयी पंक्तियाँ कानों में गूँज रहीं थी, '' धरती पर अगर कहीं स्वर्ग है तो यहीं हैं, यहीं हैं, यहीं है''.  मार्ग में सबसे पहले आया ''ऊधमपुर''……यहाँ पर हनुमान जी का 'संकटमोचन मंदिर' भक्तों की श्रद्धा का प्रमुख केंद्र है तथा 'सुन्दरानी मंदिर' में शिवलिंग के दर्शन के लिए रोज ही बहुत दूर-दूर से लोग आते हैं । थोडा और आगे सफ़र तय करने के बाद आया ''कुद''………. यहाँ पर भक्तों के रहते और खाने की अनेक धर्मार्थ संस्थाओं द्वारा बढ़िया व्यवस्था है. यहाँ लंगर खाने के बाद फिर से  हम चलती गाडी से वादियों की खूबसूरती का आनंद लेने लगे. लग रहा था ये सफ़र कभी ख़तम ही ना हो कि हम  पहुँच गए  ''पटनीटॉप'' ………. यहाँ की सुन्दरता से सभी परचित होंगे। यहाँ नवविवाहित जोड़े अपने हनीमून के लिए भी अब बहुतायत में आना पसंद करते हैं. यहाँ भी यात्रियों के लिए लंगर की व्यवस्था है.  हम यहाँ थोड़ी देर रुकने के बाद फिर चल पड़े क्योंकि सफ़र अभी बहुत ही लम्बा था. मार्ग में आगे पड़ा ''बटोट''…… यहाँ की मनोहारी छटा सबको रुकने के लिए बाध्य कर देती है. थकावट के बावजूद हम यहाँ भी गाडी से उतरे और धरती के स्वर्ग पर खुद को महसूस किया। इसके बाद आया ''रामबन''………. यहाँ की सुन्दर वादियों पर नेत्र टिक जाते हैं. यहाँ झरनों का जल अत्यंत स्वच्छ एवं पीने में मीठा भी है. यहाँ स्नान करने से आत्मिक आनंद की प्राप्ति होती है. बगल में बहती 'चिनाव' नदी का कल-कल जल मन  को असीम शान्ति प्रदान करता है.इस समय तक रात के ८ बज चुके थे और ड्राईवर हमें चुप-चाप गाडी में बैठे रहने के लिए कह रहा था क्योंकि ये पूरा रास्ता छावनी बना लगा रहा था . इसके बाद आई ''जवाहर टनल''……. लगभग २ किमी लम्बी इस टनल में बच्चे एकदम दम साधे बैठे रहे. अत्यंत रोमांचकारी लग रहा था. इसके आगे रात में जाना  सुरछित नहीं था और ना ही आगे जाने की अनुमति ही मिलती अतः हमनें अन्य यात्रियों की ही भांति FCI के गॊदाम में रात बिताई। यहाँ भी यात्रियों के लिए रजाई और कम्बल तथा स्थान उपलब्ध था . सुबह फ्रेश होकर हमनें वहां के लंगर में सब्जी और परांठा खाया। सच…. जो स्वाद उस यात्रा के दौरान लंगरों में खाना खाकर आया वो आज भी याद आता है. और हम सेना के जवानों को धन्यवाद कहकर चल पड़े अपने अगले पड़ाव की ओर.

                                  लगभग एक घंटा सफ़र करके हम पहुंचे ''अनन्तनाग''……… बचपन में यह नाम मैंने सिर्फ आतंकवाद के लिए ही सुना था. लेकिन हम पहुँचे यहाँ के सबसे खूबसूरत मंदिर '' मार्तण्ड मंदिर'' यानि भगवान् सूर्यदेव का मंदिर। यह अपने आप में अदभुत था. यहाँ दो कुण्ड थे ….''सुर्य कुण्ड' और 'विमल कुण्ड'' इनका पानी अत्यंत स्वच्छ था । उसमे मछलियाँ ही मछलियाँ थी. और वह भी अपने आप में अनोखी। वह हमारे हाँथ में आकर आटा ले जाकर खा रही थीं. हम सब वैसे भी पशु-प्रेमी ठहरे। तो हमारे लिए यह जगह अत्यंत प्यारी हो गयी. हम  काफी देर तक मछलियों के साथ मस्ती करते रहे. लोग कुंड में स्नान  भी रहे थे. अन्दर मंदिर में भगवान् सूर्य की अत्यंत तेजोमयी प्रतिमा थी. सूर्य मार्तण्ड ऋषि कश्यप एवं अदिति के तेरहवें पुत्र माने जाते हैं. यह मंदिर २६००  ई० पू ०  में  इसे पान्दव्वंशीव 'रामदेव' जी ने बनवाया था.  उसके बाद ७४२  ई०  में राज लालितदित्य ये मार्तंड इलाके में मंदिर बनवाये। उसके बाद ९वी सदी में राजा अवन्तीवार्मन' और १० वी  सदी  में राजा  'कलशक' ने मंदिर का विकास करवाया। मंदिर का ज़िक्र '' कल्हड़'' की ''राजतरंगिनी'' में भी आता है . चूँकि यह मंदिर 'पहलगाम'' के रास्ते में है इसलिए इसका महत्त्व अमरनाथ यात्रा से भी जुदा हुआ है. कहते हैं यहाँ मछलियों को दाना  खिलाये बिना  यात्रा अधूरी है.  . ….  दर्शन कर, प्रसाद ग्रहण कर हम प्रभु श्री राम और हनुमानजी के मंदिर भी गए. यह भी अत्यंत भव्य थे. इनका जीर्णोद्धार किया गया था क्योंकि अशांति के समय इन मंदिरों को अत्यंत छति पहुंचाई गयी थी. यहाँ बाहर हर तरफ सेना के जवान दिखाई पड़ रहे थे. वैसे तो पूरा कश्मीर ही सेना के हवाले है लेकिन मंदिरों के बाहर विशेष सुरछा की व्यवस्था है. मन थोडा दुःख से भी भर गया कि हम अपने देश में इतने ज्यादा असुरछित? खैर ………यहाँ से एक रास्ता 'खन्नाबल' से श्रीनगर होते हुए 'बालटाल' को जाता है और दूसरा 'पहलगाम' को . हमें जाना था 'पहलगाम'.  


                               थोड़ी देर बाद आया हमारी यात्रा का पहला पड़ाव ''पहलगाम''…………।    बाबा बर्फानी की पवित्र गुफा तक पहुँचने के दो मार्ग हैं, पहला 'पहलगाम' होकर और दूसरा  'बालटाल' से. पहलगाम 'बैलग्राम' का अपभ्रंश है. कहते हैं कि शिवजी ने माता पार्वती को 'अमरकथा' सुनाने के लिए व्यास गुफा की ओर जाते समय इसी स्थान पर अपने प्रिय बैल 'नंदी जी' को छोड़ा  था. अधिकाँश यात्री गुफा तक पहुँचने के लिए इसी मार्ग का चयन करते हैं क्योंकि ये रास्ता अत्यंत ही मनोरम है. यहाँ की खूबसूरती विश्व-प्रसिद्द है. 'लेडर  नाला' का तीव्र वेग से बहता कल-कल करता जल बरबस ही सैलानियों को अपनी गोद में बैठकर आराम करने के लिए मजबूर कर देता है. यहाँ हमारे लिए पहले से ही  'angel's inn'  में कमरे बुक थे. वहां पहुंचकर हमनें होटलवाले से  'कहवा'  बनवाकर पिया, वह बहुत ही स्वादिष्ट और एनर्जी देनेवाला था. ऊपर कमरे, लकड़ी की गुमावदार सीढियाँ उतारकर खूबसूरत lawan, उफ्फ्फ …… मन किया बस , अब और कुछ नहीं , यही जन्नत है .  हमने पूरा डेढ़ दिन पहलगाम में बिताया और ये पूरा समय वहां की खूबसूरती को आँखों में भरकर सार्थक किया। यहाँ भक्तों के लिए भण्डारा ही भण्डारा था . खाने का वैसा स्वाद मुझे लखनऊ के अच्छे से अच्छे रेस्टोरेंट में कभी नहीं मिला। दाल,सब्जी,रोटी,कढी,राजमा ,चावल के साथ-साथ राजस्थानी खाना , पंजाबी खाना तथा तरह-तरह की मिठाइयाँ, मुरब्बे, दूध, सिवई, खीर, कुल्फ़ी इत्यादि  का आनंद पूरी भक्ति-भावना के साथ सब ले रहे थे. बीच-बीच में मस्ती में नाचते शिव-भक्तों के साथ हम सभी के पैर खुद-ब-खुद थिरकने लगे. सभी भण्डारे वाले सभी को अत्यंत प्रेम और आदर के साथ खाने के लिए बुला रहे थे. यहाँ पर एक छोटी सी मार्केट भी लगी थी जिसमे उचित दामों पर रेनकोट, मोज़े , दस्ताने, टोपी, और अन्य यात्रा की जरूरत का सामन उपलब्ध था. यहाँ का 'मम्मल मंदिर' पुराने स्थापत्य कला का नमूना है. ये तो सभी जानते हैं  कि यहाँ पर बहुतायत में मंदिरों को छति पहुंचाई गयी है इसलिए इस बचे हुए मंदिर में सभी भक्तजन शिवलिंग के दर्शन करने अवश्य आते हैं. यहाँ से अमरनाथ की पवित्र गुफा ४६ किमी दूर है . यह स्थान  समुद्रतल से ८५०० फीट ऊँचाई पर स्थित है .

                                          यहाँ से अमरनाथ जी की गुफा तक के लिए वास्तव अर्थों में यात्रा आरम्भ होती है.
जिसका अगला पड़ाव था  ''चंदनवाड़ी''……………. पहलगाम से चंदनवाड़ी तक टैक्सी से जाया जा सकता है क्योंकि ये रास्ता ठीक है.  यहाँ प्रातः जितनी जल्दी पहुंचा जा सके उतना ही अच्छा होता है अन्यथा पीछे गाड़ियों के लम्बी कतार लग जाती है क्योंकि चंदनवाड़ी पहुँचने का रास्ता प्रातः ६ बजे ही खुलता है यहाँ पर यात्रियों को अपने रजिस्ट्रेशन कार्ड की जाँच करवानी पड़ती है. थोड़ी-थोड़ी दूरी पर ये जाँच तीन चरणों में संपन्न होती है. यहाँ से यात्रियों की सुविधा के लिए घोड़े, खच्चर, पालकी इत्यादि मिलने लगते हैं. दो  से लेकर ढाई हज़ार में गुफा तक का घोडा मिल जाता है. यात्रियों को चाहिए कि घोड़े के लिए थोडा गुड चना अपने साथ ले जाएँ , इससे बड़ा पुण्य का कार्य और कोई नहीं। हम सभी लखनऊ से ही ये सब सामान लेकर गए थे और जैसे ही अपने-अपने घोड़े पर सवार हुए उसे खिला  दिया।  घोड़े से यात्रा करने से पूर्व घोड़ेवाले का कार्ड अपने पास ले लें ताकि आगे किसी भी असुविधा से बचा जा सके . इस स्थान से गुफा की दूरी ३२ किमी है. यहाँ तो भण्डारेवाले सभी यात्रियों को बुला-बुलाकर, मनुहार करके कुछ न कुछ खाने का आग्रह कर रहे थे . हम सुबह ३ बजे के उठे हुए थे और यहाँ पहुंचे-पहुंचे ८. ३०  बज गए थे और भूख लग रही थी अतः हम आलू का परांठा खा कर फिर आगे बढे. कोई धर्मार्थी हमें टाफी पकड़ा रहा था तो कोई मेवे, माजा और फ्रूटी भी.हमारा भाग्य बहुत अच्छा था क्योंकि मौसम बिलकुल साफ़ था न कोई बादल न बरफ के आसार।

                                     ऊबड़-खाबड़ रास्तों पर घोड़े को कसकर पकड़कर बैठने से सही रहता है. मार्ग पतला है और उसी पर घोड़े, पैदल और पालकी वाले सभी चलते हैं इसलिए सावधान रहना बहुत ज़रूरी है. रास्ते में भक्तगण शिव बाबा का जयकारा लगाते हुए मार्ग को आसान करते रहते हैं. अब; मैं तो सच बताऊ; डरने लगी थी रास्तों की बीहड़ता देखकर . मन ही मन 'रुद्राष्टक' का पाठ कर रही थी और सबको सही-सलामत रखने की प्रभु से याचना कर रही थी . थोड़ी देर में समझ आ गया कि घोड़े पर कैसे बैठना है. अबकी हमारा अक्टूबर में की गयी 'केदारनाथ' यात्रा का पूर्व अनुभव भी काम आया . चढ़ाई पर आगे झुक जाओ और उतराई पर शरीर का भार भिल्कुल पीछे।
                               
             थोड़ी देर में हम पहुँच गए ''नीलगंगा'' …… इसके काले जल को लेकर एक कथा प्रचलित है. एक बार माता पार्वती  के नेत्रों का काजल भगवान् शिव के अधरों पर लग गया तब शिवजी ने उसे यहाँ धोया तभी इसका जल काला पड़ गया .

                                इसके बाद एकदम कड़ी चढ़ाई वाली आई ''पिस्सूघाटी''……… अब मार्ग काफी कठिन लगने लगा था. मैंने और भाभीजी ने घोड़ेवाले के साथ-साथ अपने लिए एक हेल्पर भी कर लिया था जो हमें ऊंची चढ़ाइयों पर पकडे हुए था. बच्चे हम दोनों का डर देखकर हँस रहे थे और हम उनकी हँसी से अपने अन्दर हिम्मत बाँध रहे थे . इसके नाम को लेकर भी एक कथा प्रचलित है,…… एक बार देव-दानव महादेव के दर्शन करने जा रहे थे तब दोनों में प्रथम दर्शन की होड़ लग गयी. युद्ध हुआ, दानवों ने देवोँ को बुरी तरह पराजित कर दिया। देवताओं ने शिव की प्रार्थना की. उनके आशीष से देवोँ ने पुनः युद्ध किया और दानवों की हड्डियों तक को पीस डाला और यहाँ बिखेर दिया, तभी से इस घाटी का नाम 'पिस्सू घाटी' पड़ा. कहते हैं इस पर्वत मात्र के दर्शन से कुरुछेत्र,प्रयाग तथा गंगासागर के दर्शनों जैसा फल प्राप्त होता है . यह स्थान समुद्रतल से ११५०० फीट ऊँचाई पर है.
                      
                          इसके बाद का रास्ता थोडा कठिन था.  यहाँ हमें घोड़ेवाले ने पैदल चलने के लिए कहा. हम लगभग २ किमी पैदल चले. साँस फूलने लगी थी. जो लोग नहीं चल पाते, उनके लिए इस स्थान पर पालकी की सुविधा है; बस दाम कायदे से लेते हैं. इस बार बरफ कम थी तो पत्थरों पर चलना थोडा ज्यादा कठिन था क्योंकि जो बरफ थी वह पिघलकर पानी कर रही थी और उस पर मिटटी …. सब तरफ किचकिच हो रही थी. हम सभी एक -दूसरे का हाँथ पकडे आगे की ओर बढ़ते रहे. सारा पानी इन दो किमी में पीकर ख़तम कर दिया। एक जगह जाकर घोड़ेवाले मिल गए. उन्हें देखते ही हमारी बांछें खिल गयीं। फिर सबने माज़ा पिया और चढ़ गए अपनी-अपनी सवारी पर. 

                                     'शेषनाग झील' इस यात्रा का सबसे खूबसूरत मंज़र था. बहुत सारे यात्री यहाँ रुक रहे थे लेकिन हमारे पास समय कम था इसलिए हमनें घोड़े पर चलते-चलते ही यहाँ के नज़ारे किये। इसके दर्शन घूम-घूमकर लगभग आधे घंटे तक होते रहे. सुन्दर पहाड़, उस पर जमी चाँदी सी बरफ… और उसकी झील में पड़ती साफ़ परछाई, मानों शेषनाग के फन  की  भांति प्रतीत हो रही थी . यह स्थान समुद्रतल से ११७०० फीट ऊँचाई पर है. यहाँ ठहरने के लिए डाक-बंगले, और तम्बू तथा खाने के लिए भंडारे की व्यवस्था है. इस स्थान के बारे में भी एक कहानी प्रसिद्द है,…….शिव जी ने एक बार दानवों की पूजा-अर्चना से खुश होकर उन्हें वायु रूप ले लेने का आशीर्वाद दे दिया। अब दानव तो दानव ठहरे। उन्होंने देवताओं को परेशांन  करना शुरू कर दिया  दानवों से दुखी होकर उन्होंने शिव की आराधना की. शिव जी ने कहा कि मैंने ही आशीर्वाद दिया है अब मैं वापस कैसे ले सकता हूँ? आप सब विष्णु भगवान् के पास जाएँ। सभी देवता भगवान् विष्णु के पास पहुंचे और अपनी व्यथा बताई, तब उन्होंने शेषनाग से कहा कि 'आप तो वायु भक्षक हैं अतः इस वायुरूपी दैत्य का भक्षण करें और देवोँ को कष्ट हीन करें ''. शेषनाग ने उनके आदेश का पालन इसी स्थान पर किया था तब से इसका नाम ही शेषनाग झील पड़ गया .
                                           
                                    अगली चढ़ाई थी 'गणेश टॉप''…………यह पहले वाली से  भी कठिन थी . यहाँ हमारे अंजर-पंजर सब ढीले हो गए थे. यह एक सजा लग रही थी लेकिन शिवजी का नाम लेते-लेते हम घोड़े पर बैठे रहे. जो पैदल चल रहे थे वो रुक-रूककर आराम से २-३ दिन में पहुँचने वाले थे लेकिन एक विचार दिमाग में हमेशा से था कि पहाड़ के मौसम का कोई ठिकाना नहीं इसलिए यहाँ से जितनी जल्दी हो निकल लो. इसलिए हम थकान के बावजूद आगे बढे जा रहे थे. लगभग एक बजे अमरनाथ यात्रा का सबसे प्रमुख भंडारा आया, '' पौषपत्री'' का.  

                              ''पौषपत्री'' का भंडारा तो अपने आपमें एक मिसाल है . पहाड़ की उन ऊंचाइयों पर खाने-पीने की इतनी बढ़िया व्यवस्था पूरे हिन्दुस्तान के बड़े से बड़े केटरर को भी मात देती है. यहाँ जूस, फल, मेवे, खाने के तो ना जाने कितने प्रकार …पंजाबी,  गुजराती,  दछिन भारतीय, उत्तर भारतीय सबी जगह के खाने थे. मुरब्बों की तो क़तार लगी थी …. आंवला, गाजर, और जाने क्या-क्या . ड्राई फ्रूट की चाट हमनें पहली बार खाई. टिक्की, बताशे, दही-बड़े, चाउमीन, पाव-भाजी खाकर बच्चे तो मस्त हो गए. हमने भी रोस्टेड पनीर, मशरूम खाकर अपने टूटे शरीर को थोड़ी फुर्ती प्रदान की. बर्फियों की तो कतार थी … नारियल, गुड, लौकी, मूंगफली, खोये और  भी बहुत। रसमलाई, छेना-खीर, रसगुल्ला सब कुछ आकर्षित कर रहा था लेकिन पेट तो अपना ही था ना . हाँ, एक खास बात इन भंडारों में अवश्य थी कि वह जूठा कुछ भी नही छोड़ने दे रहे थे यदि कोई प्लेट में कुछ बचा हुआ dustbin में डाल रहा था तो अत्यंत ही विनम्रता के साथ उसे वह खिला  देते थे. इसलिए जब भी आप जाएँ , प्लेट में उतना ही लें जितना खतम कर  सकें। चलते समय सबको छोटी-छोटी पुड़ियों में ग्लूकोस और टाफी दी जा रही थी. लोग यहाँ सेवा कर रहे थे. जूठे बर्तन धोने की तो होड़ मची हुई थी. सभी इसे पुण्य मानते हैं. सच! पहाड़ की उस ऊँचाई पर ये व्यवस्था भक्तों और धर्मार्थियों के शिव प्रेम का सच्चा उदहारण है. 
                                         
                         इसके बाद लगातार डेढ़ घंटा सफ़र करने के बाद हम पहुंचे ''पंचतरनी''……ये रास्ता थोडा समतल था. यह समुद्रतल से १२००० फीट ऊँचाई पर है. कल-कल बहते झरने इस स्थान की शोभा को बढ़ाते हैं. दूर से ही दिखते रंग -बिरंगे टेंट, पानी में अठखेलियाँ करते युवक और इधर-उधर मंडराते घोड़ों को देखकर लग गया कि यहाँ लोग रूककर आराम अवश्य करते हैं. यहाँ पर भैरव पर्वत का स्पर्श करके गंगा की पांच धाराएं नीचे तक आती हैं इसलिए इसका नाम 'पञ्चतरनी'' पड़ा . अब शाम के ५ बज रहे थे इसलिए हमनें रात यहीं बिताने का मन बनाया। हमनें १० रजाई-गद्दों वाला एक टेंट किराए पर लिया और अपने बैग और जूते उतार ढेर हो गए . या अपने आपमें एक बेहतरीन अनुभव था. बचपन में किये गए NCC कैंप की याद ताज़ा हो आई. टेंट वाला काफी अच्छा व्यक्ति था. उसनें हमें गरम-गरम कहवा पिलाया। हमारी सारी थकान दूर हो गयी. लगभग २ घंटा आराम करने के बाद हम फिर वहां की रौनक देखने निकल पड़े. यहाँ का माहौल देखकर बचपन के  दशहरे के मेले की याद दिला  रहा था. चारों ओर बिजली की उत्तम व्यवस्था, उस पर से खुला  निरभ्र आकाश, उसमें टिमटिमाते असंख्य तारे, चमचमाता चाँद, दोनों तरफ ऊंचे-ऊंचे पहाड़ और पीछे बहती गंगा … सच मानिए थकान के बावजूद लगा कि पंख  लगाकर पूरे इलाके का चक्कर काट आऊं. यहाँ भी कई भंडारे थे जिसमें खाने की उत्तम व्यवस्था थी. अचानक मुझे लखनऊ के 'C' ब्लाक राजाजीपुरम का भंडारा  दिख गया. मैं भागकर वहां पहुंची। इतनी बढ़िया मूंग की दाल, मिक्स सब्जी और रोटी खाकर मुझे मम्मी की याद आ गयी, मिठाई तो २ बार खाई. आखिर मेरे मायके का भंडारा  था भाई . हम हर जगह खाना खिलानेवालों और भंडारा लगानेवालों से मिलकर धन्यवाद जरूर करते थे यहाँ भी गए और अपना परिचय दिया। वो मुझे पहचान गए, मेरी आँख भर आई. उस रात हम छककर  सोये . ऐसी नींद तो मखमल के बिछौने पर भी ना आती जो वहां पहाड़ी पर बिछे बिस्तर पर आई. सुबह चार बजे से ही रौनक लगनी शुरू हो गयी थी. टेंटवाले ने चूल्हा जला  रखा था जिस पर लगातार पानी गरम हो रहा था. एक बोतल पानी १० रु और एक बाल्टी ५० रु.में मिल रही थी,  यहाँ पर teensheet के temporary toilets की व्यवस्था थी. हम सभी फ्रेश होकर नहाकर तैयार हो ५ बजे फिर से घोड़े पर सवार हो गए. 

                                                         अब  हमारा लक्ष्य पास ही था, यानी पवित्र गुफा हमसे बस ६ किमी दूर थी . लेकिन यह रास्ता काफी पथरीला और ऊबड़-खाबड़ था. लगातार ३ घंटे के सफ़र के बाद हम बाबा अमरनाथ की पवित्र गुफा के पास पहुँच गए. यह स्थान समुद्रतल से १२७२९ फीट ऊँचाई पर स्थित है . एक दूकान पर सारा सामान रख , प्रसाद ले अब हम पैदल आगे बढे.   बाबा बर्फानी की गुफा सामने ही दिख रही थी लेकिन रास्ता बहुत ही कठिन था नीचे पानी, बगल में बरफ, चारों तरफ पत्थर ही पत्थर और दूर से दिख रही भक्तों की लाइन। यहाँ से गुफा तक का रास्ता लगभग १ किमी था. चूँकि पालकीवालों के लिए दर्शन की अलग लाइन लगती है इसलिए बच्चों की सुविधा  की दृष्टि से हम सबने पालकी कर ली और कुछ ही मिनटों में बिलकुल गुफा के नज़दीक पहुँच गए. हम सब अब भाव-विभोर थे. जिन पवित्र  हिमलिंग के दर्शन हेतु इतना लम्बा सफ़र तय करके आये थे अब हम उनके सामने थे, आँख में अश्रु और मन पुलकित। दाहिनी ओर शिवलिंग और सामने गणेशजी  और माता पार्वती। सब कुछ अद्भुत। इस उम्र तक जो बस फोटो में देखा था आज साछात सामने देख रोमांचित थे. दर्शन कर मन ही मन पूजा कर, सबका दिया चढ़ावा चढ़ा, प्रसाद ले, ख़ुशी-ख़ुशी सीढियाँ उतर रहे थे की सामने खीर का प्रसाद मिल रहा था. शिवजी के चरणों का स्पर्श करती हुई अमर गंगा का जल ले हम वापस चल पड़े . यहाँ भी भक्त जनों के खाने-पीने और रहने की कोई दिक्कत नहीं। सबकी सुविधा है . हम भी कढी-चावल खाकर, दुबारा से घोड़े करकर बालटाल के रास्ते से उतर आये. यह रास्ता अत्यंत ही धूल से भरा है इसलिए हम सभी अपने आपको पूरा कवर करे हुए थे. यह रास्ता छोटा है अतः हम लगभग ४ घंटे लगातार चलते हुए नीचे आ गए . सारे रास्ते सेना के जवान पानी और दवाइयों के साथ मौजूद थे. ठन्डे पानी से बीमार होने का खतरा होता इसलिए वो सबको गरम पानी पिला रहे थे. इस तरह हमारी अमरनाथ की यात्रा संपन्न हुई. कहते हैं कि कलियुग में अमरनाथ जी के दर्शन के सामान भक्ति का अन्य कोई मार्ग नहीं। नीचे टैक्सी स्टैंड पर हमारी 'ट्रेवलर' हमारा इंतज़ार कर रही थी अतः हम सभी बाबा बर्फानी की जय बोलते हुए वापस गाडी पर बैठे और चल पड़े अपने अगले पड़ाव की ओर……. 

                                   . . . डॉ रागिनी मिश्र …

                                            

शनिवार, 13 अप्रैल 2013

कब तक होता रहेगा नारी का अपमान?

आज एक बार फिर अपने स्त्री होने पर बहुत गुस्सा और दुःख हुआ। हुआ यूँ कि; आज सुबह करीब ६ बजे अपनी कॉलोनी के पार्क में सैर कर रही थी, उस समय हम दो औरतें ही पार्क में चक्कर लगा रहे थे। अचानक एक लड़के ने पार्क बाहर एक कोने पर अपनी लाल रंग की 'activa' खड़ी करी और बाहर ही चक्कर लगाने लगा। उसकी उम्र कोई २०  या २ २ साल की रही होगी। हम लोगों ने ज्यादा ध्यान नहीं दिया और अपनी exercise में लगे रहे।  वहीँ पर एक कोचिंग भी है जिसमे ५. ३ ० बजे से ही बच्चे पढने आने लगते हैं . मैंने भी उसे एक स्टूडेंट ही समझा। वह पार्क से बाहर लटक रही डाली से फूल तोड़कर पन्नी में रख रहा था। चक्कर लगाने के दौरान  जैसे ही पार्क के उस कोने पर मैं पहुँची जिधर बाहर वह खड़ा हुआ था कि  अचानक उसने बाहर से ही अपने को 'मर्द' कहलाने  वाले अंग से अश्लील हरकत करना शुरू कर दिया और बहुत ही गंदे शब्दों में कुछ इंगित किया। एक पल को तो मानों मेरे शरीर का सारा खून जम गया और मैं धरती से चिपक सी गयी, लेकिन अगले ही पल मेरा 'चंडी' रूप जाग गया और मैं  चिल्लाती हुई और लगभग दौड़ती हुई उसके पास पहुँची कि  वह activa  स्टार्ट कर भाग गया। वह आज मेरे हाँथ आने से रह गया। उसको पीट लेती तो शायद यह न लिखती लेकिन ....एक मलाल लिए मैं घर तो लौट आई, सबको पूरा वाकया बताया, अपने लड़को को नसीहत भी दी लेकिन एक आक्रोश इस समय तक बरकरार है। यहाँ तक कि  आज मैं पूजा भी ढंग से न कर पाई  और देवी माँ  की फोटो सामने होने के बावजूद बार-बार उस लड़के का चेहरा और उसका फूल तोड़ता हाँथ और फिर उन्ही हांथों से .....................उसका इशारा। हे देवी माँ! अब तो शांत ना रहो, ऐसे समाज के दुश्मनों को कुछ तो सबक सिखाओ।  आज फिर से याद आ रहा है दामिनी का वह वाक्य ,''उन दरिंदों को जिन्दा जला देना'......अगर अब भी सरकार ने कोई कदम नहीं उठाया तो ऐसे गंदे लोगों के हौंसले बुलंद होते ही रहेंगे और समाज में किसी की भी माँ -बहन -बेटी सुरछित और सम्मानित नहीं रह सकेंगी।http://www.blogger.com/blogger.g?blogID=2116586550283842629#editor/target=post;postID=2168194854809558345
                               
                   ..........................  डॉ . रागिनी मिश्र ......................

शुक्रवार, 1 मार्च 2013

प्यार, इश्क, मुहब्बत ......

अधूरे हर्फ़ 
प्यार,
इश्क,
मुहब्बत ......

अधूरा प्रेम 
लैला,
हीर,
सोहिनी .......

अधूरी जिंदगी 
मँजनू,
राँझा,
महिवाल ......

सब अधूरा 
परन्तु; 
छाप 
अमिट ......


ना मिले; 
मीरा 
और 
कृष्ण भी तो ......

परन्तु; 
पूर्ण प्रेम,
पूर्ण 
एकात्मकता ......

ना हुये; 
कान्हा भी तो 
राधा  
के  .........

परन्तु; 
जीवंत 
अद्यतन; वह 
प्रेम, वह पूर्णता .. .....

क्योंकि; 
प्रेम नहीं 
कभी भी 
अधूरा .......

करता वह 
परिपूर्ण; 
समस्त 
भावनाओं से .....


पढ़ाता,
मनुजता का 
पाठ 
सबको ......






....................................डॉ . रागिनी मिश्र ................




रविवार, 10 फ़रवरी 2013

मेरा मस्त मनोहारी वैलेंटाइन सप्ताह

वैलेंटाइन सप्ताह  चल रहा है। रोज़ ही नए -नए सन्देश फेसबुक पर चस्पा हो रहे हैं। मैंने भी अबकी सोचा, चलो कुछ किया जाए। तो बस हम दोनों घूमने निकल पड़े। यूँ ही सड़के नापते-नापते पहुंच गए लखनऊ के मोहन रोड स्थित 'स्पर्श'.....नेत्रहीनों के विद्यालय। class 1st  से 12th  वाले, लगभग 100 छात्रों की संख्या वाले इस सरकारी विद्यालय में N.S.S. का कैंप चल रहा था और बच्चे संगीत का कार्यक्रम प्रस्तुत कर रहे थे। दूर से सुनने पर ऐसा लगा मानों कोई बढ़िया recording बज रही है लेकिन वह live  performance थी और वह  भी नेत्रहीन; छोटे-छोटे बच्चों की। इतना बढ़िया संगीत का ज्ञान, वाद्य-यंत्रों की सूझ ....मन सम्मोहित हो गया मानों। कार्यक्रम के बाद उनसे बात की। बहुत अच्छा  लगा। शाम होने लगी थी। उनको अपने हॉस्टल जाना था लेकिन हम उनके साथ और समय बिताना चाहते थे। उनके साथ मस्ती करना चाहते थे। बच्चे भी हम जैसे मस्त-मौला लोगों से मिलकर खुश हो गए। तो हमने, बच्चो तथा उनके वार्डन ने मिलकर तय किया कि  sunday का लंच हम साथ करेंगे।  उनका लंच का समय और हमारे breakfast का समय एक ही .....यानि उन बच्चों को 24 घंटे में सिर्फ दो बार खाने को मिलता था सुबह 8.30 और रात को 8.00 बजे। मन द्रवित हो उठा। उन बच्चों से उनकी पसंद पूछकर वार्डन से अनुमति लेकर sunday को उनका लंच हमने करवाने का निर्णय लिया। सारा राशन शनिवार को पहुँचा दिया और आज सुबह-सुबह हम भी पहुँच गए। उनका रसोइया पाक-कला में बहुत ही निपुण था। खाना उसने बहुत ही अच्छा बनाया  था। बच्चे इतने अनुशासित; कि मन आनंदित हो उठा। दो दिन पहले हुई एक घंटे की मुलाकात से ही उन्होंने हमें हमारी एक आवाज़ से पहचान लिया। उन्होंने खाने से पहले हमारे लिए एक संगीत का छोटा सा आयोजन कर डाला। हम उनके इस भाव से बिक गए उनके हांथों। हमारे बच्चे होते और खाने की खुशबू उनके नाक में जा रही होती तो वो क्या इस तरह हमारे लिए कुछ सोचते? बस, मन में यही भाव आ गया। प्रभु जब एक इंद्रिय छीन लेता है तो उसके स्थान पर बहुत कुछ नवाज़ देता है, आज उन बच्चों को देखकर इस बात का यकीन हो गया। मोबाइल पर उनकी उँगलियाँ कुछ इस तरह चल रही थी मानों बहुत सुन्दर नृत्य चल रहा हो। सारे नंबर याद भी थे और वह बड़े ही आराम से उसे डायल भी कर रहे थे, मेरे पूछने पर उसने बड़े ही आराम से कांटेक्ट लिस्ट में से सर्च करके भी दिखा दिया। हम सभी आश्चर्यचकित।


मोबाइल में नंबर निकालते आजम 
कपडे और जूते चमकाते रमेश, कमल और एक अन्य बच्चा 
विवेकजी से बात करते बच्चे 

क्लास 10th का 'आजम', प्यार का नाम 'अमन'.... उससे मिलकर लगा जैसे  oxford के student से बात कर रहे हों। इतनी बढ़िया अमेरिकन स्टाइल और परफेक्ट ग्रामर के साथ english में बात कर रहा था कि बस। मुझे लगा इस सरकारी स्कूल में ऐसा कैसे संभव है? उसने बताया कि मोबाइल पर नेट के थ्रू lessons से उसने सुन-सुनकर सीखा। और क्लास 11th का  'अनुज', वह तो जैसे पूरे स्कूल की जान हो। उसके बिना कोई काम नहीं चल सकता। पढने में अव्वल, क्रिकेट में चैंपियन, गीत-संगीत में महारथी। इतने सहज भाव से योग करके उसने दिखाया जैसे कोई सामान्य व्यक्ति  हमें सिख रहा हो और हमारे चेहरे के भाव भी देख रहा हो। रमेश  अपने कपडे के जूते नल पर धो रहा था और कमल  अपनी शर्ट। वह अपनी शर्ट पर की गंदगी अपने उँगलियों से महसूस करके उस पर साबुन लगा रहा था और उसको रगड़ रहा था, रमेश कह रहा था, ''कल field  में मेरे जूते ही चमक मारेंगे' ....कमल हँसते हुए कह रहा था, ''अबे! मेरी शर्ट सबसे ज्यादा चमकेगी, कितना मस्त धो रहा हूँ ''......सुनकर मेरी आँखों में आँसू आ गए कि जिन बच्चों ने जीवन में कभी चमक नहीं देखी  वह कपड़ो और जूतों को चमका  रहे हैं और कितना खुश हैं। सलाम किया उनके आत्मविश्वास  को। सभी बच्चों ने खाने से पहले हमें thanks बोल और अत्यंत अनुशासित ढंग से खाने के लिए बैठ गए। हमने उन्हें अपने हांथों से परसकर खाना खिलाया। उनके तृप्त भाव को देखकर मन अत्यंत गदगद हो उठा था। उन सबको खिलाकर हमने भी वहीँ उनके साथ ही खाया। उनके वार्डन 'पांडेयजी' अत्यन्त मधुरभाषी और व्यवहारकुशल व्यक्ति थे . बच्चों के साथ उनका सम्बन्ध बिलकुल माँ -बेटे की भांति ही दिखा।
वार्डन 'पांडेयजी'
अनुशासित ढंग से खाना खाते नेत्रहीन बच्चे 



'अनुज',  'आजम'  और मैं 
हम पति-पत्नी दोनों ही बहुत खुश थे। घर लौटना भी जरूरी था तो उनसे विदा लेकर और जल्दी ही मिलने का वादा करके हम खुश-ख़ुशी घर लौट आये। आज पहली बार लगा कि 'वैलेंटाइन सप्ताह' की शुरुआत हो गयी। 

शनिवार, 2 फ़रवरी 2013

thanku 'सरिता'..............

पिछले सात दिनों से जिन्दगी काफी अस्त-व्यस्त चल रही थी। न ठीक से morning  walk  ना ही exercise..... भागम-भाग लगी हुयी थी। सुबह काफी जल्दी उठने के बावजूद घर का काम निबटाकर college पहुँचने में रोज़ देर हो रही थी। बिना बात झल्लाती रहती थी। बच्चे और पति दोनों ही दुखी,  थे मेरे व्यवहार से। शायद; मैं खुद भी। कारण ......'सरिता' ( मेरी कामवाली बहनजी) का छुट्टी ले लेना। दो दिन कहकर गयी थी और आज सात दिन हो गए थे। आज सुबह-सुबह जैसे ही घर की घंटी बजी,  मेरा मन बल्लियों उछलने लगा। सरिता दरवाजे पर थी अपने बड़े-बड़े दाँतों को दिखाकर हँसती  हुयी। तुरंत उसे चाय बनाकर दी। वो बताने लगी कि देर क्यूँ हो गयी। पूछा, मैं नाराज तो नहीं? .......मैंने मन ही मन सोचा, ' इतनी  ज्यादा ख़ुशी तो शायद पति के वापस घर लौटने पर भी नहीं होती जितनी सरिता के आने पर हो रही है। तुरंत मन ही मन में उन्हें 'सॉरी' भी कह दिया। आज walk  और exercise दोनों ही कायदे से हुईं।बच्चों की पसंद का सांबर-इडली भी बना दिया, पति का हल्दी-दूध, अपना दलिया .....सब विधिवत, बिना किसी हड़बड़ी और भागमभाग के, आज college  भी टाइम पर। आज तुम्हें थैंक्स करने का दिल कर रहा है .....thanku सरिता!

मंगलवार, 8 जनवरी 2013

यही है प्यार!

हर सूखे पत्तों में, कुछ नमी ज़रूर बची होती है,
पेड़ों को ना सही, धरा को उसकी ज़रुरत होती है .....

कौन कहता है कि, ठुकराए हुए की कद्र नहीं होती है
हमसे पूछोsss  जिंदगी उसके बाद ही तो शुरू होती है ....

बनके नासूर जो ज़ख़्म,  हर पल टीसते रहते हैं,
सच कहूँ; तो उन्ही में कस्तूरी-गंध, बिंधी होती है ......

जिंदगी मकसद पाती है ,अक्सर ही बे-मंजिल होकर,
जिनके दिलों में प्यार की, वही कशिश बची होती है ......

फिर क्यूँ टूट जाते हो, इक साथ छूट जाने के बाद,
सूखी टहनी पर ही तो नए पत्तों की आमद होती है .....

आग में तपकर ही तो सोना कहलाता है कुंदन,
चोट खाकर ही तो देखो उसकी क्या कीमत होती है .....

ना तपेगी जब तक भीषण ज्वाला में तेरी जिंदगानी,
समझेगा ना तू, उसकी क्या असली सूरत होती है .... 

..................डॉ . रागिनी मिश्र ...................