मंगलवार, 28 अगस्त 2012

"चिर-मिलन"

एक दौर तो वो भी गुज़रा है, जब नीम भी मीठी लगती थी,
एक समय तो ये भी आया है, जब चीनी फीकी लगती है.......

जो ख्वाब की दुनिया जीते थे, अब स्वप्न-सरीखे लगते हैं,
जो छलकाते थे नयन प्रेम-रस, वो रीते-रीते लगते हैं.......

जो कदम तुम्ही  तक जाते थे, जाने अब कब से ठहरे हैं....
जो नज़र  तुम्ही पर रूकती थे, उन पर अब कितने पहरे हैं...

सोचा ना था तब; ख्वाबों में , ऐसा भी कभी  हो जायेगा
जाना ना था; जो है  मेरा,  कल यूँ ही वह  खो जायेगा ....

इस प्रणय-मिलन की बेला में, हैं रहते केवल पल-दो-पल
देकर मधुमय स्वप्न-फलक, अगले पल सब देते चल.....

इस परिवर्तन के क्रूर शिकंजे से, अब तक कौन बचा जग में,
जो आया; वो गया है निश्चित , सबको नापा इसने  इक पग में .....

अपने जीवन से खोकर तुमको , मैंने अब सत्य  ये जाना है 
ये विरह; मिलन के कारण है, अब सबको ये समझाना है .......

मिलना केवल उस प्रियतम  से ही तो;  चिर मिलन होगा 
घुल-मिल जाऊँगी  उसमे,  खोंना -पाना  ना तब होगा .......


.................................रागिनी........................


शनिवार, 18 अगस्त 2012

सजन बहुरुपिया हमार .....

सजन बहुरुपिया हमार .....


जबहि उठै बिस्तरवा से,
थाकि-थाकि  जावत हैं,
उठ्तई बेरिया ही, तुरत
हमते पैर दब्वावातु हैं,
देखतै हमका  पैर देत पसार
सजन अल्सैया हमार...............

सूट-बूट डांट कै,सेंट महकाय कै
जबही चले सजन आफिस का
जिउ धक्क्क-धक्क्क बोलत है
उनकै आसपास अप्सरा डोलत है
पहुंचत ही उहाँ, करत आंखे चार
सजन दिल्फेंक्वा हमार.........


कान के पास तै मोबाइल सटा रहे
मुह में पान केर बीड़ा अटा रहे
हमेसा ही ''हेल्लो'-''हेल्लो''बका करे
फोन करत बेरिया दूरे हटा करै
पहुँचते हमरे, आँख तरेरत बार-बार
सजन बकबकिया हमार......... 


बच्चन की नाई 'dimand 'करा करै
बार-बार नै-नै फरमाइस करा करै
हमरे कुछु कहते ही मुह चुरावा करै
कुछु मंगते ही  रिसियाए  जावा करै 
याद दिलवात ही हमरे ,झोंझाये सरकार
सजन मुह्नोच्वा हमार...



घर ते निकरत ही फ्रेश हुई जावत हैं .
हँसत-हँसत सबते बतियावत हैं
लौटत ही घर का .झूल-झूल जावत हैं
जानो, हंसी चौराहे पे धर आवत हैं
देखि उनका यह रूप रोइत हम जार-जार
सजन बहुरुपिया हमार।........
सजन बकबकिया हमार।...
सजन अल्सैया हमार।...
सजन मुहनोचवा हमार।.....
सजन दिल्फेंक्वा हमार।.............. ........


......................रागिनी..................

रविवार, 12 अगस्त 2012

''इस प्यार को क्या नाम दूं?"

             कल सबने समाचार सुना ही होगा कि,  आगरा में इंजीनयरिंग के एक छात्र ने अपने घर के सामने, अपने ही परिवारवालों की आँखों के समक्ष खुद को गोली मारकर आत्महत्या कर ली ............कारण., किसी लड़की के प्रेम में थे वे सज्जन ...और उस लड़की ने उनसे शादी के लिए इनकार कर दिया था .....हद्द है .........एक इतनी जवान और अपेक्षित जिन्दगी को उस लड़के ने एक इनकार के कारण समाप्त कर दिया ......जिस मक़ाम , जिस बुलंदी को पाने के लिए वह इतने महंगे कॉलेज से पढाई कर रहा था, वह लक्ष्य उस समय कैसे उसकी आँखों और मन से धूमिल हो गया?  अपने जीवन से अपने बूढ़े भविष्य की आस लगाये अपने मा-बाप के जीवन का ख्याल भी नहीं आया उसे ? उसने ये भी ना सोचा कि  ,,,  उसकी जिन्दगी की समाप्ति तो उसके मा-बाप को भी बेमौत मार डालेगी....... एक साथ इतनी मृत्यु !!!  हे भगवान्! क्या प्यार इतना हिंसक भी हो सकता है? अगर हाँ: तो ये प्यार नहीं.....सिर्फ जिद्द है ...जिद्द है समय-समय पर दूसरी-दूसरी चीजों को प्राप्त करने की.............बचपन में मा-बाप से करी हुई  जिद्द जवानी में भी कुछ लोगों के दिमाग पर अधिकार करे रहती है ,,,जिसके दुष्परिणाम इस रूप में सामने आते हैं.........

             ये प्यार नहीं है ...........प्यार तो जीवन में सहनशक्ति, समझोता, आगे बढ़ने की प्रेरणा और विभिन्न जिम्मेदारियों का एहसास कराने वाला वह सशक्त भाव है जिसके चलते व्यक्ति लोगों के सामने एक उदहारण बन सकता है ......लेकिन उस युवक की तरह नहीं.. ...उसे तो ये सोचना चाहिए था की मैं उस कमी को अपने जीवन से दूर करके उस लड़की के सामने ऐसा उदहारण प्रस्तुत करूंगा कि उसको अपने निर्णय पर सारी जिन्दगी अफ़सोस रहेगा ...अगर प्यार में निराश होकर इसी तरह युवक और युवतियां जान लेते और देते विधाता को भी दुःख होगा  कि उसने ये भाव इंसान के मन में पैदा ही क्यों किया जिसके महत्त्व को वह समझ ही नहीं पा रहे ?
                   
                        

शनिवार, 11 अगस्त 2012

कुछ यूं भी



तुमसे बिछुड़कर शिकवा ना किया,

भरी महफ़िल में कभी रुसवा ना किया,


जब दर्द हुआ;  हँस-हँस के सहा ,

दुनियावालों से बस   यही कहा.....
.

"ये लोग क्यों किसी पे मरते हैं 

दिल में इतना दर्द क्यों भरते हैं  


की बाखुशी अपना क़त्ल करवाके 

इल्जाम भी खुद पे  ही धरते हैं "


ग़म खुद का छुपा मुस्कराए हैं 

हमने रिश्ते कुछ यूँ भी निभाए हैं ...........



.............रागिनी .....................

गुरुवार, 2 अगस्त 2012

"मेरी मृगतृष्णा"

कब मेरी ये प्यास बुझेगी
या ये मृगतृष्णा बन जायेगी ?
प्रथम चुम्बन की वो आसक्ति
अधरों का कम्पन भर रह जायेगी?

कब तक तरसेंगे उस पल को
जी रहे हैं जिसको सदियों से
तारों की वो लौकिकता क्या
पहले प्रहर  भर रह जायेगी?

स्नेहिल मोती वो शब्दों के; जो ,
निकले थे उन कम्पित अधरों से,
सुन्दर माला बन सज उठेंगे वो ,
या फिर यूँ बिखर रह जायेंगे 


यह मिलना है  दो फूलों का
या फिर है मिलना दो कूलों  का
सागर छितिज की सुन्दरता
क्या गर्जन भर रह जायेगी?
 
ये प्रीत मेरी वो आसक्ति है
जो  मेरी पहचान बनी जाती है 
बचपन में ललाट का था जो घाव 
अब बिंदी की सुन्दरता ले आती है 

जीवन के बढ़ते इस  क्रम  में
मेरी प्रेमाग्नि भड़कती जाती है  
होगी पूर्णाहुति इसमें; तुम्हारी 
या  "मेरी मृगतृष्णा" बन जाएगी?............

..............रागिनी ............
mrigtrishna