गुरुवार, 29 नवंबर 2012

'' ऐ जिंदगी!''

बहुत संभाला है मुझको ऐ  जिंदगी तूने,
आ, आज तू मेरी बाहों का सहारा ले ले।

तेरे दामन में कितनी बार छुपके रोई हूँ,
आज तू मेरी मुस्कान का किनारा ले ले।

जब भी टूटी हूँ, तेरे सामने ही बिखरी हूँ,
समझ कर जी की मेरी; इक इशारा ले ले।

कितनी ही दफ़ा छूटी है मेरे हाँथों से तू,
चल, फिर मेरी हथेलियों का सूरज हो ले।

तू भी तो देख,, क्या सीखा है मैंने तुझसे,
साहिल जो कोई ढूँढ़े;तो सहारा मेरा ले ले। 

अब तो उस दौर को, पीछे छोड़ा है मैंने,
है मजाल किसी की; जो मुझको छल ले।

जो चाहूंगी मन से उसको पा ही जाऊंगी,
तय कर रही हूँ रास्ते; संग तेरी सीख ले।

आ,मिल के दोनों वक्त की लहरों से लड़ लें, 
थाम के तू ऊँगली मेरी चल, उस पार हो लें।


................डॉ रागिनी मिश्र ...........................

शनिवार, 17 नवंबर 2012

''चाहिए एक विभीषण'' .......

विभीषण
एक नाम .....
छद्म का,
धोखे का,
भ्रात्र्द्रोह का,
घर के भेदी का ........
क्यों?


क्यों नहीं वह
भरत समान,
प्रतीक ...........
प्रेम का,
विश्वास का,
त्याग का,
भ्रात्रप्रेम का?


क्यों?
क्या होता वध
शक्तिशाली रावण का?
होते विजयी 
श्रीराम?
आती वापस
वैदेही?


नहीं!
विभीषण बिना
दुष्कर था सब,
लंका विजय
बन जाती स्वप्न
ना होता यदि .....
विभीषण।


विभीषण ने तो
दोस्ती निभाई थी
संग श्रीराम के,
कल्याण किया
अखिल
मानव स्रष्टि का ....
फिर?


फिर क्यों
नहीं चाहते हम
विभीषण .....
अपने घर,
समाज,
वतन,
विश्व में?


जो,
सही सलाह दे,
श्रीराम को,
मात्र
स्व नहीं
जन-कल्याण में
रत हो।


आज ...
विद्यमान है रावण
हर समाज में,
देश में,
बल्कि
सम्पूर्ण
विश्व में।


विनाश करता
सभी ..
मूल्यों का,
घोंटता गला
इंसानियत का,
बजाता डंका
पाप का।


रोज ही
लड़ते हैं
उससे;
जाने कितने ही
श्रीराम ......
परन्तु,
नहीं होते सफल।


कारण 
मात्र इतना ही .....
कि नहीं है 
विभीषण कोई भी, 
पास श्रीराम के 
जो  दे दे भेद 
रावण की नाभि का।


आज
दूर करने को
यह  तांडव
चाहिए
तो बस
हर राम को
एक विभीषण।




..........डॉ रागिनी मिश्र .........





रविवार, 11 नवंबर 2012

'मन-मंथन'

आज करो 
फिर से 
मंथन .........
सब अपने-अपने 
मन-सागर का,
निकले कोई 
'कौस्तुभ' शायद,
हो जिससे प्रकाशित 
मन-आँगन।

करने फिर से 
शीतल 
उत्तपन्न हो 'पारिजात'
'कामधेनु' भी आकर 
करे पूर्ण इच्छाएँ ,
'चन्द्र' पुनः प्रकाशित हो 
भरे चांदनी चहुँ ओर ,
हो दृश्य ऐसा 
मन-भावन।

किन्तु,
इन सबसे पहले 
ऐसे करें मंथन .....
निकल जाए सारा हलाहल 
हम सबके मन से,
पिया था गरल 
कल्याण करने को,  
किन्तु आज .....
नहीं चाहिए कोई  शिव 
'नीलकंठ' बनने को, 
सब मथ  के फेंक दे 
उस विष को 
ना करे उसको कोई धारण, 
देखो फिर कैसे 
चमकेगा सबका 
मन-दर्पण।

यूँ ,
रत्न सारे, स्वयं 
आ जायेंगे हमारी 
झोली में 
बजेगा 'विष्णु शंख'
झूमेगा 'ऐरावत'
होंगी अवतरित 'लछमी'
ले 'अमृत-कलश' 
अपने हांथों में 
प्राप्त फिर होगा 
सबको आशीष 
देवी का, और 
महकेगा सबका
घर-आँगन।


............................डॉ . रागिनी मिश्र ...............








सोमवार, 5 नवंबर 2012

शर्त ....

शर्त ....
जीवन में,
हर कदम पे,
हर रिश्तें में,
हर मोड़ पे,
खड़ी  है ....
मुहँ बाए 
सुरसा की तरह।

होती हज़म 

अक्सर ही 
उसको .....
ढेर सारी भावनाएं,
चढ़ जाती हैं भेंट 
कई मान्यताएं,
हो जाती हैं स्वाहा 
तेरी-मेरी 
अनेकों इच्छाएँ।

जिंदगी शर्तों पे 

जी नहीं जाती 
पर .......
रोज़ ही जीते हैं हम,
मर-मर के,
करते ख़तम 
स्व अस्तित्व 
शर्तों के साए में।

............डॉ . रागिनी मिश्र ..............