शनिवार, 29 दिसंबर 2012

''गुनाहगार हम सब भी हैं''

आज वह मौत से हार गयी। लेकिन हम सबके अन्दर एक जुनून, एक जज़्बा पैदा कर गयी; 'अन्याय के खिलाफ आवाज़ को बुलंद करने का'....'स्त्री के प्रति सम्मान की भावना पैदा करने का'......'हम सबको अपने अंतर्मन में झांककर देखने का।'....................हम और आप जिस भाँति  भी अपना आक्रोश, दुःख,श्रधांजलि व्यक्त करना चाह  रहे हैं; कर रहे हैं। परन्तु आज सब यह मान गए हैं कि  समाज में स्त्रियों के प्रति रवैया दिन-ब-दिन खराब होता ही चला जा रहा है। स्त्री-पुरुष सब यही कह रहे हैं कि उनके प्रति दृष्टीकोण में परिवर्तन लाना ही पड़ेगा वर्ना समाज और बिगड़ेगा।
                                                    इसलिए आज मेरे सभी फेसबुक एवं ब्लॉगर मित्रों, अग्रजों, अनुजों एवं अपने बच्चों से करबद्ध निवेदन एवं आग्रह है कि कोशिश करें कि आप अपने घर, बाहर, मित्रों से बातचीत के मध्य ''माँ और बहनों'' से सम्बंधित गालियों का प्रयोग ना करें। ये हमारी एक पहल होगी स्त्रियों को शाब्दिक अपमान से बचाने  की। आज मेरे एक अग्रज  जी ने आज लिखा है कि,''समाज जल्दी नहीं बदलता....लेकिन बदलता अवश्य है और जो नहीं बदलता वह समाप्त हो जाता है।''  बात बलकुल सही है। क़ानून में बदलाव सरकार का काम है और हम उसे जगाने का भरसक प्रयत्न कर भी रहे हैं लेकिन खुद जागना और समाज को जगाना हमारा प्रथम दायित्व है। इसलिए आज बिना किसी बाहरी विद्रोह के, मन के अन्दर चल रहे विद्रोह के साथ मेरी प्रार्थना स्वीकार करें और पुश्तों से प्रयोग में लायी जा रही उन गालियों की तिलांजलि के साथ ही '' दामिनी'' को श्रधांजलि अर्पित करें ........हो सकता है आपके इस प्रयास से उसकी आत्मा को कुछ शांति मिल जाए।
.......................................डॉ .रागिनी मिश्र ...........

..


गुरुवार, 27 दिसंबर 2012

''राम! अब आ ही जाओ''


जब मिटाने रावण  को,श्रीराम आयेंगे, 
सामने अपने वो,कितने ही रावण पाएंगे
देख उनको, क्या नहीं वो अच्कचायेंगे, 
बढ़ गए कैसे इतने, सोच में पड़ जायेंगे।

''त्रेता में तो कर दिया था संहार उसका 
कैसे बढ़ा  कलियुग में परिवार उसका
मैं तो हूँ एक,फिर कैसे हो संहार सबका
कर सकूंगा फिर से क्या उद्धार सबका ?''

उस समय तो एक रावण सामने था
और साथ उसके राछसों की सेना थी
आज हर छेत्र में जगह-जगह रावण हैं
और साथ सबके रावणों की ही सेना है"।

सोच ये श्रीराम भी पद पीछे खींचेंगे
इस समस्या से वो भी आँखें मीचेंगे
लेंगे नहीं जोख़िम वो उसको मारने का
ना हो कहीं भय उनको उससे हारने का।

हो कैसे फिर, कलियुग में संहार उसका ?
यूँ; कैसे रुके वर्तमान में विस्तार उसका ?
क्या यूँ ही करता रहेगा, वो विष-वमन ?
और होता ही रहेगा, हम सबका दमन ?

करके अंत रावण का तुम ''सीता'' लाये थे' 
सृष्टी की हर स्त्री का  तब आशीष पाए थे' 
आज कितनी दामिनियों ने गुहारलगाई है 
एक साथ मिलकर सब फिर  चिल्लाई हैं।


हे राम! अब सुन ही लो, हम सबकी पुकार
फिर से इक बार रोक लो, तुम ये अत्याचार
ना झिझको तुम, देख रावणों का दुर्व्यवहार
हैं; तुम्हारे साथ भी,हम सभी वानर तैयार।

..........डॉ . रागिनी मिश्र .................










शुक्रवार, 7 दिसंबर 2012

तुम्हारी यादें



आओ तुम्हारी यादों को,
                       थोड़ा सा सवांर  लूं,
जम गयी है धूल इनपे,
                    चलो  इसे बुहार लूं..........


समय की शिला के नीचे,
                      दबी हुई यादों को,
जीवन-संध्या की बेला मे,
                       फिर से निकाल लूं.........


जिन्दगी  की जद्दोजहद में; 
                         भूली उन यादों को,
फुर्सत के इन पलों में; 
                            ह्रदय में फिर पाल लूं........


चलते ही चलचित्र,
                   मानसपटल पर ,यादों का
मुरझाई उन आँखों में,
                     जीवनरस फिर से  डाल लूं .......


साथ बिताये उन लम्हों की,
                      सहेज कर रख थाती
स्मृति -पटल बंद करके, 
                          ताला उस पर डाल दूं ......


अनमोल तुम्हारी यादों का, 
                          कोई मोल नहीं जग में
इसलिए उन्हें अंतर्मन के,
                            उस कोने में ही डाल दूं ......






.........................डॉ..रागिनी..मिश्र ................................

गुरुवार, 29 नवंबर 2012

'' ऐ जिंदगी!''

बहुत संभाला है मुझको ऐ  जिंदगी तूने,
आ, आज तू मेरी बाहों का सहारा ले ले।

तेरे दामन में कितनी बार छुपके रोई हूँ,
आज तू मेरी मुस्कान का किनारा ले ले।

जब भी टूटी हूँ, तेरे सामने ही बिखरी हूँ,
समझ कर जी की मेरी; इक इशारा ले ले।

कितनी ही दफ़ा छूटी है मेरे हाँथों से तू,
चल, फिर मेरी हथेलियों का सूरज हो ले।

तू भी तो देख,, क्या सीखा है मैंने तुझसे,
साहिल जो कोई ढूँढ़े;तो सहारा मेरा ले ले। 

अब तो उस दौर को, पीछे छोड़ा है मैंने,
है मजाल किसी की; जो मुझको छल ले।

जो चाहूंगी मन से उसको पा ही जाऊंगी,
तय कर रही हूँ रास्ते; संग तेरी सीख ले।

आ,मिल के दोनों वक्त की लहरों से लड़ लें, 
थाम के तू ऊँगली मेरी चल, उस पार हो लें।


................डॉ रागिनी मिश्र ...........................

शनिवार, 17 नवंबर 2012

''चाहिए एक विभीषण'' .......

विभीषण
एक नाम .....
छद्म का,
धोखे का,
भ्रात्र्द्रोह का,
घर के भेदी का ........
क्यों?


क्यों नहीं वह
भरत समान,
प्रतीक ...........
प्रेम का,
विश्वास का,
त्याग का,
भ्रात्रप्रेम का?


क्यों?
क्या होता वध
शक्तिशाली रावण का?
होते विजयी 
श्रीराम?
आती वापस
वैदेही?


नहीं!
विभीषण बिना
दुष्कर था सब,
लंका विजय
बन जाती स्वप्न
ना होता यदि .....
विभीषण।


विभीषण ने तो
दोस्ती निभाई थी
संग श्रीराम के,
कल्याण किया
अखिल
मानव स्रष्टि का ....
फिर?


फिर क्यों
नहीं चाहते हम
विभीषण .....
अपने घर,
समाज,
वतन,
विश्व में?


जो,
सही सलाह दे,
श्रीराम को,
मात्र
स्व नहीं
जन-कल्याण में
रत हो।


आज ...
विद्यमान है रावण
हर समाज में,
देश में,
बल्कि
सम्पूर्ण
विश्व में।


विनाश करता
सभी ..
मूल्यों का,
घोंटता गला
इंसानियत का,
बजाता डंका
पाप का।


रोज ही
लड़ते हैं
उससे;
जाने कितने ही
श्रीराम ......
परन्तु,
नहीं होते सफल।


कारण 
मात्र इतना ही .....
कि नहीं है 
विभीषण कोई भी, 
पास श्रीराम के 
जो  दे दे भेद 
रावण की नाभि का।


आज
दूर करने को
यह  तांडव
चाहिए
तो बस
हर राम को
एक विभीषण।




..........डॉ रागिनी मिश्र .........





रविवार, 11 नवंबर 2012

'मन-मंथन'

आज करो 
फिर से 
मंथन .........
सब अपने-अपने 
मन-सागर का,
निकले कोई 
'कौस्तुभ' शायद,
हो जिससे प्रकाशित 
मन-आँगन।

करने फिर से 
शीतल 
उत्तपन्न हो 'पारिजात'
'कामधेनु' भी आकर 
करे पूर्ण इच्छाएँ ,
'चन्द्र' पुनः प्रकाशित हो 
भरे चांदनी चहुँ ओर ,
हो दृश्य ऐसा 
मन-भावन।

किन्तु,
इन सबसे पहले 
ऐसे करें मंथन .....
निकल जाए सारा हलाहल 
हम सबके मन से,
पिया था गरल 
कल्याण करने को,  
किन्तु आज .....
नहीं चाहिए कोई  शिव 
'नीलकंठ' बनने को, 
सब मथ  के फेंक दे 
उस विष को 
ना करे उसको कोई धारण, 
देखो फिर कैसे 
चमकेगा सबका 
मन-दर्पण।

यूँ ,
रत्न सारे, स्वयं 
आ जायेंगे हमारी 
झोली में 
बजेगा 'विष्णु शंख'
झूमेगा 'ऐरावत'
होंगी अवतरित 'लछमी'
ले 'अमृत-कलश' 
अपने हांथों में 
प्राप्त फिर होगा 
सबको आशीष 
देवी का, और 
महकेगा सबका
घर-आँगन।


............................डॉ . रागिनी मिश्र ...............








सोमवार, 5 नवंबर 2012

शर्त ....

शर्त ....
जीवन में,
हर कदम पे,
हर रिश्तें में,
हर मोड़ पे,
खड़ी  है ....
मुहँ बाए 
सुरसा की तरह।

होती हज़म 

अक्सर ही 
उसको .....
ढेर सारी भावनाएं,
चढ़ जाती हैं भेंट 
कई मान्यताएं,
हो जाती हैं स्वाहा 
तेरी-मेरी 
अनेकों इच्छाएँ।

जिंदगी शर्तों पे 

जी नहीं जाती 
पर .......
रोज़ ही जीते हैं हम,
मर-मर के,
करते ख़तम 
स्व अस्तित्व 
शर्तों के साए में।

............डॉ . रागिनी मिश्र ..............


रविवार, 14 अक्तूबर 2012

समय



किसी शायर ने क्या खूब कहा है.............
'मुझसे वो चाल चल गया कैसे, पास आकर बदल गया कैसे
एक लम्हे को आँख झपकी थी, सारा मंज़र बदल गया कैसे
वक़्त भी खूब जादूगरी दिखाता है, वरना ये दिल बहल गया कैसे"

                  यही है "वक़्त"..........जिसको समझ पाना हर एक व्यक्ति के लिए संभव नहीं. जीवन में जब भी कुछ बुरा हो जाता है तो अक्सर लोग यही कहते हैं कि "अरे! समय ही ख़राब चल रहा है ............" , ऐसा नहीं है. समय तो अपनी ही गति से चलता रहता है, बस हम ही समय के अनुकूल नहीं रह जाते हैं. समय की रफ़्तार को पकड़ पाना किसी के वश में नहीं होता है लेकिन समय को पहचानकर उसके अनुकूल आचरण करना तो हमारे ही हाथ है. परन्तु ये भी सत्य है कि समय को पहचानने की छमता  किसी-किसी में ही होती है. व्यक्ति जीवन में सब कुछ अपने अनुभव से ही सीखता है. बच्चा भी जब स्वयं  स्कूल पढने जाता है तब ही वह विद्यालय  -जीवन  का अनुभव प्राप्त करता है. इसी प्रकार जब हम समय की अनुकूलता और प्रतिकूलता; दोनों ही देख लेते हैं तब जाकर ही समय की उपयुक्तता का भान होता है. अन्यथा हर व्यक्ति स्वयं को अत्यंत सशक्त समझता रहता है. अतः मेरे विचार से हर व्यक्ति के जीवन में उस वस्तु,व्यक्ति,स्थान का छिनना या खो जाना नितांत ज़रूरी है जिससे वह बहुत प्रेम करता है या जिससे उसे अत्यंत ख़ुशी प्राप्त होती है......

                   जब जीवन में किसी का अभाव आरम्भ से ही हो तो उपर्युक्त स्थिति असंभव है परन्तु यदि कोई ऐसी घटना हो जिसमे आपकी मनपसंद चीज़ दूर चली जाए, या फिर आप ये पहचान ही ना पाए कि उस चीज़ की आपके जीवन में क्या अहमियत थी, या फिर अपने व्यर्थ के अहम् के कारण उसे गवां दें .........तब ही जाकर व्यक्ति उस समय को याद करता है और यहीं से उसके जीवन में एक नया अध्याय जुड़ता है .............."अनुभव".
                  व्यक्ति उम्र या बढ़ते समय के साथ अनुभवी नहीं बनता  बल्कि  उस स्थिति से गुज़रकर अनुभवी बनता है. समझाना और समझना  एक शब्द के दो प्रयोग तो  हो सकते हैं लेकिन व्यावहारिक जीवन में दो विपरीत कूल हैं जो एक दूसरे को देखते तो हैं पर मिलते कभी नहीं हैं.........पढ़कर ज्ञानी बनना आसान है, लेकिन उसी किताब को प्राप्त सम्बंधित  अनुभव  के बाद पढने की अनुभूति ही अलग है.अतः जब भी जीवन में समय आपके अनुकूल ना हो तो उसे ईश्वर द्वारा प्रदत्त  पाठ समझें और उसमे रोने के बजाय महसूस करें साथ ही उसमे क्या कुछ सीखने को मिल रहा है; उसे समझे.
                 कभी-कभी भगवान हमारे अहम् को तोड़ने के लिए भी ऐसी परिस्थितियां हमारे सामने लाता है, या फिर हमें आने वाले समय के अनुसार परिपक्व करने के लिए भी..........


..................डॉ रागिनी मिश्र ..............

गुरुवार, 20 सितंबर 2012

"मेरी इक मृगतृष्णा"

एक मुठ्ठी सूखी रेत में; घरौंदा देखना......
मेरी इक मृगतृष्णा है........

बादल गरजे, बिजली चमकी,बौछारों ने रास रचाई 
सहमी सी उस ख़ामोशी को बूंदों ने भी नज़र लगाई 
गर्जन में पिता और बिजली में बचपन;
सहज दिख जाता है,....................
बस,उन बूंदों में मासूमियत ढूंढ पाना 
मेरी एक मृगतृष्णा है...........

जीवन की हर राह, मोड़ पर;  साथी आये, सपने लाये 
संग अपने कसमे-वादों की प्यारी सी सौगात भी लाये 
जीवन में दुःख, वादों में सुकून 
सहज दिख जाता है .......................
ऐसे ही इक वादे  को निभते देख पाना
मेरी इक मृगतृष्णा है.............

लेकिन उस जर्जर घरौंदे में, छोटा सा परिवार बसा है 
थकी-हारी माँ की छाती में, अब भी थोडा दूध बचा है 
माँ की विवशता, बच्चों की विकलता 
सहज दिख जाती है ..............
पल-पल मरते उनमे, जीवन की ललक देख पाना 
मेरी इक मृगतृष्णा है...........

इक मुठ्ठी सूखी रेत में; घरौंदा देखना.........
मेरी इक मृगतृष्णा है............



.................................रागिनी.....................

शनिवार, 15 सितंबर 2012

"प्रेम का बगीचा"

तेरे लिए इक नीड़ मैंने बनाया है,
मन के रंगों से उसे मैंने सजाया है
घर के बाहर इक बगीचा बनाया है
प्रेम का इक पौधा उसमे लगाया है ..........

आसक्ति की रोपनी से रोपती उसे मैं
खाद विश्वास का डालती  उसे मैं
श्रद्धा के हजारे से सींचती उसे मैं
नेह की डोरी से फिर,बांधती उसे मैं .......

प्रीत की ताजगी ही तो हरियाली है 
अपने बगीचे की बात ही निराली है 
फूलों से लदी हुई यहाँ की हर डाली है 
उस पर प्रणय-गंध कितनी मतवाली है.....

रोज ही यहाँ कितने प्रेम-सुमन झरते हैं 
कण-कण प्रकृति के प्रेम-प्रेम करते हैं 
इक-दूजे के दुखों को हम प्रेम से हरते है
क्लेश और चिंता यहाँ आने से डरते हैं .......

कितने यत्नों से मैंने तुमको पाया है 
तुम जहाँ;  वहीँ पर तो मेरा साया है 
तेरे लिए इक नीड़ मैंने बनाया है 
मन के रंगों से उसे मैंने सजाया है।........

                                          
.....................रागिनी.................

गुरुवार, 6 सितंबर 2012

"ये आग कब बुझेगी"?

                            कल 5 सितम्बर था, यानि शिक्षक-दिवस,......आज विद्यालय में उस उपलक्ष्य में छात्राओं द्वारा  कुछ रंगा -रंग कार्यक्रमों का आयोजन किया गया। सभी कार्यक्रम अत्यंत ही रोचक और मजेदार थे। लेकिन अचानक ही class 6 एक नन्ही सी छात्रा  एक शेर सुनाने मंच पर आई, और बड़े ही सधे हुए स्वर और जोश में उसने एक शेर सुनाना  आरम्भ किया,.......
                                  चांदनी चाँद से होगी, तो सितारों का क्या होगा 

मैडम सुन रही हैं ना, गौर फरमाइए , "चांदनी चाँद से होगी, तो सितारों का क्या होगा 

                                              मायावती मर जाएगी, तो चमारों का क्या होगा"?

                      यकीन हो या ना हो, लेकिन छोटे से लेकर बड़े बच्चों तक के हाँथ हवा में लहराए और जोरदार तालियाँ और ठहाका एक साथ हाळ  में गूँज उठा. हम सब सन्नाटे में आ गए, ये क्या हो गया? आखिर हम समाज के ठेकेदार  शिक्षक जो ठहरे। ये नहीं होना चाहिए था, गलत हुआ, वगैरह-वगैरह। लेकिन जिस बच्ची ने सुनाया था वह इन सभी बातों से बेफिक्र थी। उसके चेहरे पर अजीब से विद्रोही भाव थे, उसकी आँखें बहुत ही साफ़-साफ़ कह रही थी 'कुछ' ......ये 'कुछ' हम जाने कितने वर्षों से देख रहे हैं और परसों से लगातार टीवी पर सुन और देख रहे हैं। कल संसद में हुई हाथापाई और आज ये शेर सुनकर हम लोगों के बीच हुई अनबोली हाथापाई ...........आखिर कब तक?

                    
                        कब तक जातिगत राजनीति करने वाले समाज को दो फाड़ करते रहेंगे और कब तक हम आपस में एक-दूसरे को नफरत की नज़रों से देखते रहेंगे? कब तक समाज का एक वर्ग हमेशा 
तथाकथित रूप से पीछे ही रहेगा? क्या इतनी सुविधाओं से लैस कर दिए जाने पर भी उसकी कभी तरक्की नहीं होगी? [नेताओं की नज़रों में]  कब तक एक वर्ग से उसका जायज हक़ छीनकर किसी और को दिया जाता रहेगा? कब तक ये नफरत की आग राजनेता जलाये रखना चाहेंगे? कब तक इस आरक्षण की आग में प्रतिभाएं जलती रहेंगी? और आखिर कब तक नाजायज सुविधाओं का लाभ उठानेवालों की चेतना जाग्रत नहीं होगी? ज्यादा कुछ लिखने से मेरे अन्दर की आग भी जल उठेगी इसलिए बस इतना ही प्रश्न है मेरा,''ये आग कब बुझेगी"?

                      

बुधवार, 5 सितंबर 2012

बिनु गुरु ज्ञान कहाँ ते पाऊं

एक कच्ची मिट्टी के ढेले को सानकर, उसे चाक पर आकार देकर, आग में तपाकर सुंदर कलाकृति के रूप में परिवर्तित करने का श्रेय उस कुम्भकार को है जिसने इतनी मेहनत करके उसे दूसरों के लिए बनाया .....धन्य है वह . ठीक उसी प्रकार एक गुरु अपने शिष्य को संवारकर दूसरों के समक्ष अपनी क्षमताओं को प्रदर्शित करने के लिए तैयार करता है, वह  उसके भविष्य के निर्माण में उसका सहयोग करता है. मन से गहन अन्धकार को निकालकर जो अपने शिष्य को प्रकाश से भरे सही मार्ग पर ले जाए वोही वास्तव में गुरु कहलाने का अधिकारी है ...फिर चाहे वो माँ हो, पिता हो, गुरु हो, भाई अथवा बहन या फिर मित्र या कोई और. हमें जीवन में जिससे ज्ञान प्राप्त हो जाए वही  हमारा गुरु है.
आज शिक्षक दिवस के पावन पर्व मैं सर्वप्रथम अपनी माँ को प्रणाम करुँगी तत्पश्चात अपने जीवन में विद्यालय से लेकर विश्वविद्यालय तक के उन समस्त शिक्षकों को शत –शत प्रणाम करती हूँ जिनके उचित दिशा-निर्देश से आज मैं  कुछ बन पायी हूँ .
लेकिन बात यहीं समाप्त नहीं हो जाती .....क्योंकि जीवन अभी चल रहा है. मैंने इन सबके अलावा भी बहुत सारे लोगो से बहुत कुछ सीखा  है. 
अपने भाई (मनोज) से दूसरों की सहायता करना सीखा  है तो अपनी बहन (कामिनी) से सहनशक्ति,अपने पति (विवेक) से तो मैंने पशु-सेवा, दूसरों से प्रेम करना, जीवन में आगे बढ़ना, अपनी पहचान और ना जाने क्या-क्या सीखा  है ....अपनी मित्र (राज्यश्री) से जीवन बिखरने के बाद जोड़ना सिखा है, तो अन्य 
(निताशा) से जीवन दर्शन का ज्ञान मिला है....ये सब पूरा ज्ञान  मिलाकर मैं एक सफल टीचर, प्रिसिपल, माँ ,पत्नी,और एक समाज-सेविका बन पायी हूँ ,,,इन सबकी मैं आजीवन आभारी रहूंगी और सदा ही इनसे सीखे हुए पाठ मेरे जीवन का मार्ग प्रकाशित करते रहेंगे....लेकिन इन सबके अलावा जिन्होंने मुझसे मेरी पहचान अनजाने में करवा दी है उनको सिर्फ आज का ही दिन प्रणाम के लिए पर्याप्त नहीं है ..मैं आजीवन उन सभी की आभारी हूँ और होती रहूंगी ....



.......................................................डॉ . रागिनी मिश्र ................................



मंगलवार, 28 अगस्त 2012

"चिर-मिलन"

एक दौर तो वो भी गुज़रा है, जब नीम भी मीठी लगती थी,
एक समय तो ये भी आया है, जब चीनी फीकी लगती है.......

जो ख्वाब की दुनिया जीते थे, अब स्वप्न-सरीखे लगते हैं,
जो छलकाते थे नयन प्रेम-रस, वो रीते-रीते लगते हैं.......

जो कदम तुम्ही  तक जाते थे, जाने अब कब से ठहरे हैं....
जो नज़र  तुम्ही पर रूकती थे, उन पर अब कितने पहरे हैं...

सोचा ना था तब; ख्वाबों में , ऐसा भी कभी  हो जायेगा
जाना ना था; जो है  मेरा,  कल यूँ ही वह  खो जायेगा ....

इस प्रणय-मिलन की बेला में, हैं रहते केवल पल-दो-पल
देकर मधुमय स्वप्न-फलक, अगले पल सब देते चल.....

इस परिवर्तन के क्रूर शिकंजे से, अब तक कौन बचा जग में,
जो आया; वो गया है निश्चित , सबको नापा इसने  इक पग में .....

अपने जीवन से खोकर तुमको , मैंने अब सत्य  ये जाना है 
ये विरह; मिलन के कारण है, अब सबको ये समझाना है .......

मिलना केवल उस प्रियतम  से ही तो;  चिर मिलन होगा 
घुल-मिल जाऊँगी  उसमे,  खोंना -पाना  ना तब होगा .......


.................................रागिनी........................


शनिवार, 18 अगस्त 2012

सजन बहुरुपिया हमार .....

सजन बहुरुपिया हमार .....


जबहि उठै बिस्तरवा से,
थाकि-थाकि  जावत हैं,
उठ्तई बेरिया ही, तुरत
हमते पैर दब्वावातु हैं,
देखतै हमका  पैर देत पसार
सजन अल्सैया हमार...............

सूट-बूट डांट कै,सेंट महकाय कै
जबही चले सजन आफिस का
जिउ धक्क्क-धक्क्क बोलत है
उनकै आसपास अप्सरा डोलत है
पहुंचत ही उहाँ, करत आंखे चार
सजन दिल्फेंक्वा हमार.........


कान के पास तै मोबाइल सटा रहे
मुह में पान केर बीड़ा अटा रहे
हमेसा ही ''हेल्लो'-''हेल्लो''बका करे
फोन करत बेरिया दूरे हटा करै
पहुँचते हमरे, आँख तरेरत बार-बार
सजन बकबकिया हमार......... 


बच्चन की नाई 'dimand 'करा करै
बार-बार नै-नै फरमाइस करा करै
हमरे कुछु कहते ही मुह चुरावा करै
कुछु मंगते ही  रिसियाए  जावा करै 
याद दिलवात ही हमरे ,झोंझाये सरकार
सजन मुह्नोच्वा हमार...



घर ते निकरत ही फ्रेश हुई जावत हैं .
हँसत-हँसत सबते बतियावत हैं
लौटत ही घर का .झूल-झूल जावत हैं
जानो, हंसी चौराहे पे धर आवत हैं
देखि उनका यह रूप रोइत हम जार-जार
सजन बहुरुपिया हमार।........
सजन बकबकिया हमार।...
सजन अल्सैया हमार।...
सजन मुहनोचवा हमार।.....
सजन दिल्फेंक्वा हमार।.............. ........


......................रागिनी..................

रविवार, 12 अगस्त 2012

''इस प्यार को क्या नाम दूं?"

             कल सबने समाचार सुना ही होगा कि,  आगरा में इंजीनयरिंग के एक छात्र ने अपने घर के सामने, अपने ही परिवारवालों की आँखों के समक्ष खुद को गोली मारकर आत्महत्या कर ली ............कारण., किसी लड़की के प्रेम में थे वे सज्जन ...और उस लड़की ने उनसे शादी के लिए इनकार कर दिया था .....हद्द है .........एक इतनी जवान और अपेक्षित जिन्दगी को उस लड़के ने एक इनकार के कारण समाप्त कर दिया ......जिस मक़ाम , जिस बुलंदी को पाने के लिए वह इतने महंगे कॉलेज से पढाई कर रहा था, वह लक्ष्य उस समय कैसे उसकी आँखों और मन से धूमिल हो गया?  अपने जीवन से अपने बूढ़े भविष्य की आस लगाये अपने मा-बाप के जीवन का ख्याल भी नहीं आया उसे ? उसने ये भी ना सोचा कि  ,,,  उसकी जिन्दगी की समाप्ति तो उसके मा-बाप को भी बेमौत मार डालेगी....... एक साथ इतनी मृत्यु !!!  हे भगवान्! क्या प्यार इतना हिंसक भी हो सकता है? अगर हाँ: तो ये प्यार नहीं.....सिर्फ जिद्द है ...जिद्द है समय-समय पर दूसरी-दूसरी चीजों को प्राप्त करने की.............बचपन में मा-बाप से करी हुई  जिद्द जवानी में भी कुछ लोगों के दिमाग पर अधिकार करे रहती है ,,,जिसके दुष्परिणाम इस रूप में सामने आते हैं.........

             ये प्यार नहीं है ...........प्यार तो जीवन में सहनशक्ति, समझोता, आगे बढ़ने की प्रेरणा और विभिन्न जिम्मेदारियों का एहसास कराने वाला वह सशक्त भाव है जिसके चलते व्यक्ति लोगों के सामने एक उदहारण बन सकता है ......लेकिन उस युवक की तरह नहीं.. ...उसे तो ये सोचना चाहिए था की मैं उस कमी को अपने जीवन से दूर करके उस लड़की के सामने ऐसा उदहारण प्रस्तुत करूंगा कि उसको अपने निर्णय पर सारी जिन्दगी अफ़सोस रहेगा ...अगर प्यार में निराश होकर इसी तरह युवक और युवतियां जान लेते और देते विधाता को भी दुःख होगा  कि उसने ये भाव इंसान के मन में पैदा ही क्यों किया जिसके महत्त्व को वह समझ ही नहीं पा रहे ?
                   
                        

शनिवार, 11 अगस्त 2012

कुछ यूं भी



तुमसे बिछुड़कर शिकवा ना किया,

भरी महफ़िल में कभी रुसवा ना किया,


जब दर्द हुआ;  हँस-हँस के सहा ,

दुनियावालों से बस   यही कहा.....
.

"ये लोग क्यों किसी पे मरते हैं 

दिल में इतना दर्द क्यों भरते हैं  


की बाखुशी अपना क़त्ल करवाके 

इल्जाम भी खुद पे  ही धरते हैं "


ग़म खुद का छुपा मुस्कराए हैं 

हमने रिश्ते कुछ यूँ भी निभाए हैं ...........



.............रागिनी .....................

गुरुवार, 2 अगस्त 2012

"मेरी मृगतृष्णा"

कब मेरी ये प्यास बुझेगी
या ये मृगतृष्णा बन जायेगी ?
प्रथम चुम्बन की वो आसक्ति
अधरों का कम्पन भर रह जायेगी?

कब तक तरसेंगे उस पल को
जी रहे हैं जिसको सदियों से
तारों की वो लौकिकता क्या
पहले प्रहर  भर रह जायेगी?

स्नेहिल मोती वो शब्दों के; जो ,
निकले थे उन कम्पित अधरों से,
सुन्दर माला बन सज उठेंगे वो ,
या फिर यूँ बिखर रह जायेंगे 


यह मिलना है  दो फूलों का
या फिर है मिलना दो कूलों  का
सागर छितिज की सुन्दरता
क्या गर्जन भर रह जायेगी?
 
ये प्रीत मेरी वो आसक्ति है
जो  मेरी पहचान बनी जाती है 
बचपन में ललाट का था जो घाव 
अब बिंदी की सुन्दरता ले आती है 

जीवन के बढ़ते इस  क्रम  में
मेरी प्रेमाग्नि भड़कती जाती है  
होगी पूर्णाहुति इसमें; तुम्हारी 
या  "मेरी मृगतृष्णा" बन जाएगी?............

..............रागिनी ............
mrigtrishna

बुधवार, 4 जुलाई 2012

.'स्त्रियां और हास्य लेखन'

थोड़े दिनों पहले अपने ब्लॉगर मित्र श्री अमित कुमार श्रीवास्तव जी ने लिखा कि  'स्त्रियाँ हास्य--व्यंग्य क्यों नहीं लिखती हैं'........बात दीगर लगी .सोचा कुछ हँसी  का लिखा जाए।.....लिखा,, मिटाया,, फिर सोचा इसमें हँसी  तो आ ही नहीं रही है,.व्यंग्य भी नहीं दिख रहा है,....दिख रहा है तो सिर्फ कटाक्ष .....फिर सोचने लग पड़ी कि बात सत्य है 'ये हास्य कहाँ चला गया है हम स्त्रियों की जिन्दगी से?'......हम हँसते तो खूब जोर--जोर से हैं, महफ़िल गूँज जाती है, तो क्या सब बनावटीपन  है, अगर नहीं तो अमित जी के प्रश्न का उत्तर कहाँ है?
                                                 
                                                   जीवन की उठापटक जितना स्त्रियों को प्रभावित करती है उतना शायद पुरुषों को नहीं करती .....शादी के बाद से ही नए परिवेश को समझना,, उसमे ढ़लना,,नयी--नयी जिम्मेदारियों का निर्वहन,,नयी जिन्दगी को संवारना ......सब नया--नया ..स्त्री वह नहीं रह जाती  जो शादी के पहले रहती है...उसका वह चंचल मन एकदम स्थिर हो जाता है, उसका बेबाकपन शालीनता में तब्दील हो जाता है।....सब polished .....धीरे--धीरे यही उसका lifestyle  बन जाता है,सब उसका यही रूप पसंद करते हैं इसलिए  इसी बनावटीपन में वो सहज रहती है लेकिन वास्तविक सहजता गायब हो जाती है और एक मनुष्य की सहज अन्तर्निहित प्रवृत्ति का अंत हो जाता है, और चूँकि वह हर काम दिलो--जान से करती है,, इसीलिए  हास्य--लेखन नहीं कर पाती है।.....क्योंकि हँसना तो बिलकुल निर्झर की तरह है ......साफ़,,उन्मुक्त,,कल--कल,,कुल--कुल .......

शुक्रवार, 15 जून 2012

भाए आम मन को..... 'चोरी का'

                                      शीर्षक पढ़कर चौंकिए नहीं, बात सोलह आने सच्ची है ....अमूमन सबके साथ होता है, कोई share नहीं करता है ......मै कर रही हूँ ........................................................................
 समय आ गया है, आम बाज़ार का राजा बनकर छा चुका  है। तरह-तरह के आम  बाज़ार में अपनी पैठ बनाकर दिल को लुभा रहे हैं, .............लेकिन जो आम पडोसी के पेड़ पे लगा होता है उसे चुराकर खाने का आनंद ही कुछ और है, जो पेड़ सड़क के किनारे किसी के घर के बाहर  आम से लदा खड़ा होता है , कदम खुद-ब -खुद उस रास्ते चल पड़ते हैं।सुबह-सवेरे जबरदस्ती उन पेड़ों के नीचे होकर ही सैर पर निकलना और अचानक उन्ही पेड़ों के पास आकर जूते के फीतों का खुलना, झुककर  उन्हें बांधने  की जबरदस्ती की कवायद में गिरे हुए आम को यूँ उठाना ; मानों उसने आपकी walk में बाधा पहुंचाई।अगले ही पल उस आम का पाजामे की जेब में पहुंचना और फिर पूरा रास्ता मूंछों ही मूंछों में मुस्कराते हुए कटना .......घर में वापसी एक विजयी वीर की तरह करना और फिर उस आम को खाना ......यह आनंद बाज़ार से खरीदकर आम खाने में कहाँ?

                                             मेरी भी स्थिति आजकल यही हो रही है. बाज़ार से खरीदकर क्यों खाऊ; जबकि पीछे के घरवालों के पेड़ की पूरी एक डाल मेरे घर की छत पर पूरे साल आराम करती है. तो आम के मौसम में मेरा पूरा हक़ बनता है उस डाल को झकझोर कर जगाने का।.....हाय! क्या स्वाद होता है उस कच्चे-पक्के आम को पडोसी से चुरा-चुराकर खाने का ........इस भरी गर्मी में,तपती दुपहरी में,गर्मी की छुट्टी में  मोहतरमा 'रागिनी मिश्रा' को अपने ठन्डे कमरे के अलावा  घर की छत पर भाग-भाग कर जाना भी खूब भाता है .....पूरी कोशिश यही होती है कहीं बाहर घूमने  जाने से पहले सारे  आम पेट में पहुँच जाए वरना बाहर जाकर भी वोह आम बिछड़े प्रियतम की तरह रातों  की नींद उडाता रहता है.........
                                                  
                                             dinner के बाद walk  करना कम आम ताड़ने का कार्यक्रम ज्यादा चलता है। अच्छा..........ये आम चार दिन में पक कर  गिर जायेगा और उसके पहले अगर घर के मालिक ने तोड़ लिया तो! नहीं........इसे  हमने तड़ा  है और हम ही इसी तोड़ेंगे. फिर तडके तीन बजे उठकर डंडा-हसिया उठा 'चला मुरारी हीरो बनने' वाला plan  शुरू हो जाता है और तीन-चार; जितने भी धडकते दिल से आम तोड़ पाए; तोड़े और फिर बिस्तर से उठे सुबह आठ बजे के बाद। और फिर जो अपनी बहादुरी  के किस्से सुनाये तो बस्स!!!  तरह-तरह के आम बाज़ार से खरीदकर भी आते हैं लेकिन सच्ची बताये;; जो इस तरह से आम खाए हैं या खा रहे हैं उस स्वाद का कोई मुकाबला है ही नहीं.........भाए आम मन को चोरी का ......देखिये मैंने इस पूरे लेख को भी आम सा रंगीन बना दिया है यानि पूर्णरूपेण 'आम्मयी रचना'.............

रविवार, 22 अप्रैल 2012

कहाँ खो गयी???

कहाँ खो गयी...
वह लहक ,
वह महक ,
वह चहक ,
वह चमक,
वह ललक,
और;
वह झलक
कहाँ खो गयी?




जीवन-मरू में,
रह गयी है...
बस ख़ामोशी,
और तुम्हारी;
वह सरगोशी.
भूल गयी....
वह मदहोशी,
ख़त्म हो गयी;
अब  बेहोशी.




जीवन में अब 
बस बची है,
तुम्हारी प्रतीक्षा;
और तुमसे
प्रीत के 
बोलों की 
वही 
पुरानी,
अपेक्षा..........

रविवार, 8 अप्रैल 2012

'सरकारी विद्यालयों की दुर्दशा:सुधार हेतु सुझाव'

facebook  पर बहुत दिनों से एक message  flash   हो रहा है कि, 'हम नौकरी तो सरकारी चाहते हैं लेकिन अपने बच्चे को सरकारी स्कूल में पढ़ाना नहीं चाहते हैं'......क्यों? सवाल  अत्यंत  विचारणीय है ........और जवाब एक ही है, 'हम सरकारी कर्मचारियों का एक standard  है, लेकिन सरकारी विद्यालय उस मानक पर खरे  नहीं उतरते हैं...


ज्यादा पुरानी बात नहीं है, आज से लगभग १५ साल पहले तक सरकारी विद्यालयों की स्थिति इतनी बुरी नहीं थी, लोगों के विचार थे कि जितने भी IAS ,IPS ,PCS अधिकारी हैं, सब सरकारी विद्यालयों से ही पढ़कर बने हैं, हाँलाकि; ये धारणा आज भी कायम है..... फिर; कारण क्या है? हम क्यों नहीं पढ़ाते अपने बच्चों को वहां? क्या private schools  में teachers  ज्यादा qualified  हैं? नहीं....ऐसा कुछ भी नहीं है....जो स्तर teachers  का govt .colleges  में है वह private  में कहीं नज़र भी नहीं आता..हाँ! यदि कुछ नज़र आता है तो वह है वहां का hardwork ,अच्छी सी बिल्डिंग, glamour और इंग्लिश....इसके अलावा guardians  को भाता है.....जितनी ज्यादा फीस उतना अच्छा स्कूल, जितना ज्यादा स्कूल का टाइम उतना अच्छा ही वह स्कूल,और फिर swimming ,games ,और summer camps .....अब ये धारणा मनो-मस्तिष्क पर काफी गहरे पैठ चुकी है, और हर समर्थ अविभावक ज्यादा फीस और भीड़ वाले स्कूल में अपने बच्चे का दाखिला करवाना चाहते हैं.....


अभी हम समझ नहीं रहे हैं कि यदि इन प्राइवेट schools  की कुक्कुर्मुत्ता पैदावार को नहीं रोका गया तो इसके क्या भयंकर परिणाम हमारी आगे आने वाली पीढ़ी को भुगतने  पड़ेंगे .....आज एक बच्चे की पढाई यदि शहर के किसी अच्छे {अविभावक की दृष्टि में} प्राइवेट स्कूल में करवाई जाती है तो कम-से-कम एक लाख रूपया सालाना लगता है ...यदि किसी के दो बच्चे हैं तो दो लाख और यदि उसकी सालाना कमाई पांच लाख रूपए है तो उसे दो लाख में अपना घर चलाना है और एक लाख रूपया भविष्य के लिए बचकर रखना है यदि उसे अपने बच्चो को आगे डॉक्टर,इंजीनियर या फिर MBA  कराना है....यानि शादी करने के बाद से उसे अपने बच्चों के लिए ही जीना है...वरना? और अगर इतनी कमाई में सब संभव नहीं है और आकान्छाएं ज्यादा  हैं तो लाख कोशिशों के बाद भी इस देश से भ्रष्टाचार और घूसखोरी नहीं ख़तम हो सकती....सरकार तो यही चाहती है कि ऐसे schools  और ज्यादा तादात में खुलते ही रहें क्योंकि यहाँ उसकी कमाई है...


तो फिर; क्या हो? इस बढ़ते हुए  शिक्षा के खेल में कैसे सही ढंग दुबारा लाया जाए? कैसे फिर से सरकारी विद्यालयों की पढाई का स्तर सुधारा जाए? मेरी नज़र में इसका एक तरीका है; वह यह कि सरकार यह नियम बना दे कि "  हर सरकारी कर्मचारी का बच्चा सरकारी स्कूल में ही पढ़ेगा".......आप देखिएगा उसी दिन से सभी सरकारी विद्यालयों की गुणवत्ता अपने आप ही अभूतपूर्व ढंग से सुधर जाएगी....जब शिक्षा-विभाग के आला अधिकारियों के बच्चे सरकारी विद्यालयों में पढने जायेगे तो वह दिन दूर नहीं कि सरकार को और अधिक विद्यालय खोलने पड़ जायेंगे और वापस लौटेगा सरकारी विद्यालयों की वही पुरानी शान ............जहाँ से पढ़ा हुआ बच्चा ही आज ज्यादातर अधिकारी की कुर्सी को सुशोभित कर रहा है.... 










sarkar

बुधवार, 4 अप्रैल 2012

'आओ खेलें भ्रष्ट-भ्रष्ट'

चलो आज नेता बन जाएँ 
फिर इस देश की बैंड बजाएँ;
सबको कर दें त्रस्त-त्रस्त
'आओ खेलें भ्रष्ट-भ्रष्ट'....


एक घोटाला तुम करो 
फिर एक घोटाला मैं करूं;
अखबारों में छपे सुर्खियाँ 
see -saw see -saw हम करें....


कसम खाएँ माँ-बाप की
एक 'प्रेस कांफ्रेंस' करें;
खेल चले बराबर का 
मिल-बाँट रुपैया हजम करें....


मढ़कर दोष किसी माथे पर
अपनी छवि उजली बनवाकर ;
कितने ही murder करवाकर 
कर दें सब कुछ अस्त-व्यस्त.....


देश का करके बंटाधार
खुद ही बन जाएँ कर्णधार;
हम तो हो जाएँ मस्त-मस्त
आओ; फिर खेलें भ्रष्ट-भ्रष्ट.....







रविवार, 11 मार्च 2012

"r u there "?......

मेरे inbox  में पड़ा तुम्हारा सन्देश.......
'क्या हुआ
r  u there "?.....
"where r u ????????"
आज मुझे चिढ़ा रहा है,
खूब रुला रहा है,
जितनी पीड़ा ताउम्र  नहीं मिली,
उससे ज्यादा आज तड़प
एक पल में पा ली....
जीवन भर न मिट पानेवाली
ग्लानि पा ली.....


मैं रुक न सकी दो पल,
और तुम इतनी आगे निकल गए...
मेरे उत्तर की प्रतीक्षा भी न कर सके?
मेरा जवाब तो सुन लेते,
जाते-जाते कुछ तो कह जाते .
आज बार-बार मैं msg कर रही हूँ..
'क्या हुआ, r u there ?'
कोई जवाब नहीं...
अब; कभी कोई जवाब नहीं...
जीवन भर पूछती ही रह जाऊँगी
पर अब कभी कोई जवाब न पाऊँगी 
क्यों न इंतज़ार कर सकी उस पल
और अब इंतज़ार हर पल
अविराम........



शनिवार, 3 मार्च 2012

आई होली आई!


लो आ गयी होली,
फिर से छा गयी होली...
मतवाली बयारों संग,
मन को भा गयी होली...


लाल-गुलाबी-नीला-पीला,
रंग उड़े है चारों ओर....
नाचे बाबा देवर बन के,  
देखो नाचे जैसे  मोर ...


खाके गुझिया चढ़ाकर भंग,
देखो डाले सबपे रंग..........
होली के हुल्लारे में, 
भीगा सबका मन और अंग .....




ना कोई बैर, ना कोई दुश्मन,
भूले हर कोई अपना गम...
लग जाएँ गले एक-दूजे के, 
छाए ऐसे होली हरदम.........


अबकी रंग लगाना सबको ऐसा,
कोई और न रंगत छाए,
मतलब से भरी इस दुनिया में
बस प्यार का रंग रह जाए...... 




बुधवार, 22 फ़रवरी 2012

शादी की " expiery "

शादी की  " expiery "......शीर्षक पढ़कर अजीब सा लगा न!....लेकिन क्या करें, कल हमारी एक परिचित खूब सज-धजकर हमारे घर आयीं थीं..हमने उनसे यूँ ही पूछ लिया, "भाभीजी! भाईसाहेब नहीं आये"? वह ठठाकर हँस पड़ी और बोली, "क्या हमेशा साथ में ही आया-जाया जाता है? अरे! शादी की भी expiery  date होती है". उस समय तो मैं आवाक उन्हें देखती रह गयी लेकिन उनके जाने के बाद सोचा, " अरे! जैसे शादी कोई  product हो, जिसकी expiery  हो? लेकिन अगले ही पल दिमाग ने कहा,  गलत ही क्या कह रही थी.......भई!  शादी-शुदा जिंदगी में हमेशा एक सा मामला तो रहता नहीं, बदलाव तो आ ही जाते हैं. लेकिन 'expiry '? नहीं.... यहाँ भी परिवर्तन लाया जाना चाहिए..'best before '....यह ठीक रहेगा..




 तो अब आप जब भी किसी की शादी का निमंत्रण-पत्र  पायें तो समझ लें कि किसी product का विज्ञापन है..जिसमें शादी कि तिथि उसकी manufacturing date है और जिसमें 'best before' invisible .....लेकिन है अवश्य .

गुरुवार, 9 फ़रवरी 2012

जीने की कला ....oolong tea

आज आप सबके साथ बचपन में अंग्रेजी में पढ़ी एक कहानी share करना चाहती हूँ.....'oolong tea '.....यदि अच्छी लगे तो अपने अमूल्य विचार अवश्य व्यक्त करियेगा........


एक बार की बात है. एक लड़की अपनी माँ के पास अत्यंत उदास भाव से आकर बोली..."माँ! मेरे जीवन में जैसे समस्याओं की झड़ी लगी हुई है, एक समाप्त नहीं होती कि दूसरी मुँह बाए सामने आकर खड़ी हो जाती है. मुझे समझ नहीं आ रहा है कि मैं किस प्रकार इनका सामना करूँ? कभी-कभी तो मेरा मर जाने का मन करता है..अब जीवन से राग भी समाप्त होता जा रहा है, लगता है जैसे पत्थर हो गयी हूँ..अब मुझसे स्थिति  नहीं संभाली जाती है. मैं क्या करूँ?"....................

बेटी की बात सुनकर माँ अत्यंत धीरज के साथ उसके सर पे हाँथ फेरती हुई उसे रसोईघर की ओर ले चली..वहां उसने गैस के तीनों चूल्हे जलाकर तीन भगोने में तेज आँच पर पानी चढ़ा दिया..जैसे ही पानी उबलने लगा उसने एक भगोने में गाजर, दूसरे में अंडे और तीसरे में उलोंग चाय डाल दिया  और बिना एक भी शब्द बोले चुपचाप वहीँ बैठ गयी.........

लगभग बीस मिनट बाद उसने गैस बंद कर दी और एक कटोरी में गाजर, दूसरी में अंडे और तीसरी में चाय रखकर अपनी बेटी से पूछा.."तुमने क्या देखा?"

"गाजर,अंडे और चाय"...उसने जवाब दिया.

उसकी माँ उसके पास गाजर की कटोरी लेकर आई और उसे छूने के लिए कहा..उसने छूकर देखा की गाजर एकदम मुलायम हो चुकी है..अब उसकी माँ ने उसको एक अंडे को छीलने  के लिए कहा..उसने पाया कि छिलके के अन्दर अंडा द्रव से कठोर हो चुका है ..

अंत में उसकी माँ नें उसे उलोंग चाय पीने के लिए कहा ...उस चाय कि खुशबू और स्वाद से उसके उदास चेहरे पर एक मुस्कराहट तैर गयी, उसे उसका स्वाद बहुत अच्छा लगा ..चाय का घूँट भरकर उसने अपनी माँ से पूछा, 'माँ इन सबका क्या मतलब है? कृपया मुझे बताइए?"

माँ अत्यंत अर्थपूर्ण मुस्कराहट के साथ बोली,"बेटी! तुमने देखा की गाजर,अंडे और उलोंग ; तीनों ने ही एक जैसी ही  परिस्थिति का सामना किया..तीनों ने खौलते पानी को महसूस किया, लेकिन तीनों की प्रतिक्रिया  भिन्न थी ...."गाजर"...जो बड़ी कड़ी और मजबूत नज़र आ रही थी; खौलते पानी में पड़कर वह नरम और धीरे-धीरे लुचलुचा गयी,.........वहीँ "अंडा"....जो ज़रा सी असावधानी से  बेकार हो जाता है, उसका बाहरी कठोर  आवरण उसके अन्दर के द्रव को संभाले रखता है; वह खौलते पानी में पड़कर अन्दर से एकदम कड़ा हो गया और उसका छिलका नरम.........लेकिन उलोंग चाय तो सबसे अलग थी . जैसे ही खौलते पानी के संपर्क में वह आई उसने पानी का रंग ही बदल दिया, उसका स्वाद बाधा दिया और अपनी खुशबू चारों तरफ वातावरण में फैला दी" ......

"अब तुम बताओ कि  जीवन में समस्यां  आने पर तुम कैसे व्यवहार करोगी  .....गाजर,अंडा या उलोंग जैसा"?

लड़की स्वयं को अंडे की जगह रखकर सोचती है कि यदि मैं गाजर जैसे व्यवहार करूंगी तो मुसीबतों का सामना करते ही  एक दिन अत्यंत कमजोर  हो जाउंगी  और अपनी आन्तरिक शक्ति गवां बैठूंगी .और बाहर से भी एकदम कमजोर दिखने लगूंगी.....

यदि मैं  अंडे  जैसे नरम दिल  ही रहती हूँ तो जीवन में  सब अच्छा है, लेकिन  जैसे ही मुसीबतें ,बीमारी या पैसे की  तंगी आएगी  तो मैं  बाहर से तो वैसे ही दिखूंगी  , लेकिन अन्दर ही अन्दर एकदम कठोरह्रदय हो जाऊंगी और अन्दर की जिजीविषा,नरमता समाप्त हो जाएगी .....

और यदि मैं उलोंग जैसे रहती हूँ तो जीवन में आने वाली तकलीफों को अत्यंत सकारात्मक ढंग से लूंगी..और समस्याओं का सामना ख़ुशी -ख़ुशी कर सकूंगी ....हर नकारात्मकता को सकारात्मकता से ले सकूंगी..जीवन जीने के लिए है ..लेकिनं जीना एक कला है...जैसे चाय खौलते पानी में उबल-उबलकर अपनी खुशबू से दूसरों को आकर्षित कर लेती है और लोग  उसको पिए बिना नहीं रह पाते  उसी प्रकार जीवन में तकलीफों के मध्य जो अपनी जिजीविषा को नहीं छोड़ता है लोग उसी का सम्मान करते हैं;स्नेह देते हैं....

वह लड़की सब कुछ समझ जाती है और ख़ुशी-ख़ुशी अपनी माँ से कसकर लिपट जाती है ..सच है जीवन में हर समय खुशियाँ ही खुशियाँ हो ये संभव नहीं लेकिन हम अपनी आन्तरिक ताकत और गुणों से दुखों  को ख़ुशी-ख़ुशी सहन तो कर ही सकते हैं और दूसरों को भी खुश रख सकते हैं..जीवन अनमोल है..जिसे हँसते हुए जीना चाहिए न कि रोते हुए .....तभी तो जब हम अंतिम यात्रा पर आँख बंद किये मुस्करा रहे होंगे तब हमारे चारों तरफ लोग हमारी बात करके रो रहे होंगे......

रविवार, 5 फ़रवरी 2012

तुम्हें क्या-क्या बना दूं....

तुम अभी 10th  का exam  देने जा रहे हो..रात-दिन बस तुम्हारे ही बारे में सोचती रहती हूँ..जीवन में जैसे बस तुम्ही रह गए हो आजकल..तुम कैसे पढ़ो कि; तुम्हारे अच्छे marks  आ जाएँ..आगे कौन सी line  में जाना है..तुम कौन सा carrier चुनोगे..तुम क्या बनोगे.. तुम्हें maths  में रूचि नहीं; 'हाय राम! अब क्या होगा?' बिना गणित तुम क्या करोगे? उसकी field तो बहुत बड़ी है. फिर? अच्छा तुम biology  लेना चाहते हो..चलो ठीक है..अब तो तुम्हारे पास सीमित field है...चलो ऐसे तैयारी करो कि 10th  में 100 % तो ले ही आओ..अच्छा चलो थोडा discount ...लेकिन पढ़ो तो!.......

अच्छा!!! अगर तुम डॉक्टर बनना चाहते हो तो कौन सा interance  exam  दोगे?.. कौन सी को coaching  में डालू तुम्हे?  उफ़! कौन से डॉक्टर बनोगे? orthopedic ? हाँ! ये सही रहेगा...मुझे हड्डियों की बहुत problem  है...

फिर सोचती हूँ कि क्या इतनी मेहनत कर पाओगे ? इतने नाज़ुक से मेरे लाडले हो....अच्छा ऐसा करती हूँ कि तुम्हे कुछ और बना देती हूँ, जैसे "lecturer "....हाँ! यह  थोड़ी आराम की नौकरी रहेगी...तुम्हे music  का भी शौक है...इस नौकरी के साथ वह भी पूरा हो जाएगा ...लेकिन पढ़ो तो सही...अच्छे marks  आयेंगे तभी तो आगे कुछ होगा...

एक अकेले तुम......... तुम्हे जाने क्या-क्या बना देना चाहती हूँ....सिर्फ मैं ही तुम्हे नहीं बल्कि हर तुम्हारी age -group  वाले बच्चे की माँ शायद इस समय इसी सपने को देख रही है, क्योंकि तुम्ही लोग हो हमारा सम्मान हो .हमारा 'अस्तित्व' हो ...तुमसे कुछ माँग थोड़े ही रही हूँ.तुम तो दोगे ही ये सम्मान..कुछ भी बनो अपनी ईमानदारी और मेहनत से बनो ..हम हमेशा तुम्हारे साथ हैं...