रविवार, 8 मई 2011

"माँ!.....मुझे तुमसे कुछ कहना है"

 सुबह से लोगों के सन्देश आ रहे हैं......"हैप्पी मदर्स डे"...........अभी तक मैंने किसी को भी जवाब नहीं दिया है और न ही अपनी माँ को बधाई दी है.......और न ही दूँगी.इसलिए नहीं कि उससे प्यार नहीं करती बल्कि इसलिए कि; सिर्फ एक दिन  ही माँ के नाम नहीं करना चाहती, बल्कि जितने दिन मैं इस धरती पर साँस ले रही हूँ उतने दिन उसके नाम ..... इसलिए बधाई देकर उसके नाम के असीमित दिनों को सीमा में नहीं बांधना चाहती.
                                लेकिन आज तुमसे कुछ पुराना,दबा हुआ दर्द बताना चाहती हूँ....जो जीवन के चालीस वर्ष पूरे करने और दो बच्चों की माँ बनने के उपरांत भी कह न सकी...."छह दिसंबर सन उनीस सौ सत्तर....मेरे जन्म के छह माह के बाद ही तुमने मुझे "बाबा-दादी" के पास पालने के लिए इलाहाबाद छोड़ दिया ...."क्यों"? जबकि दीदी और भैया तुम्हारे प्यार भरे आँचल तले पले...थोड़ा सा होश संभाला तो हमेशा तुम्हारे साथ लखनऊ आने वाली ट्रेन में अपनी छोटी सी संदूकची लेकर बैठ जाती लेकिन तुम जानबूझकर हमेशा रात १०.४० वाली ट्रेन से जाती...मैं अबोध ट्रेन में ही सो जाती और सुबह खुद को इलाहाबाद के अपने खटोले पर ही पाती..थोड़ा सा रोती और फिर बाबा के दिए 'लड्डू-बर्फी' और अम्मा  के लड़ियाने में सब भूल जाती. फिर बाबा कहते 'चलो अपने मम्मी-पापा को चिट्ठी लिखकर बोलो कि तुम्हे लेकर क्यों नहीं गए'? तुम जवाब देती कि "तुम्हें अम्मा-बाबा लाने ही नहीं देते"......मैं कुछ समझ न पाती लेकिन शाम को बाबा के साथ लोकनाथ की चाट,रबरी और फ्रूट-आइसक्रीम खाकर मस्त हो जाती और बाबा के समझाने पर समझ भी जाती  कि 'चलो दीदी-भैया को ये सुख कहाँ नसीब'......बहुत सेवा करती थी अम्मा-बाबा की.हाँ! पूरे घर की जान थी मैं. बहुत गर्व था बाबा को मुझपर.
                                          जब कभी मेरा तुम्हारे पास आना होता तो हमेशा तुम्हारी आँखों में मेरे लिए एक "स्पेशल ट्रीटमेंट' का भाव होता..क्यों? मैं उस सहज प्यार से तब भी  वंचित ही रह जाती;जो दीदी और भैया  को मिलता था....पूछने पर तुमसे जवाब मिलता "कल को तुम फिर अपने घर अपनी अम्मा के पास चली जाओगी".........और अम्मा से इसी प्रश्न का ये जवाब मिलता कि "बिटिया तुम कभी-कभी ही अपने घर जाती हो न इसीलिए तुम पर  विशेष ध्यान दिया जाता है"......मैं कभी किसी से न कह पाती कि मुझे कहीं से कुछ भी विशेष नहीं चाहिए .....अम्मा! न तुमसे और मम्मी! न तुमसे.
                                        पढ़ने में शुरू से ही तेज,बात-चीत में सबको आकर्षित कर लेने वाली,किसी भी तर्क में सबको पछाड़ देने वाली,घर के काम-काज में निपुण होती चली गयी..अम्मा ने मुझे बहुत कायदे से सब कुछ सिखाया लेकिन मम्मी! वो कभी मेरे दुखी होने पर रोओई नहीं, मेरे बालों पे प्यार से हाँथ नहीं फिराया.....जबकि तुम सब कुछ दीदी और भैया के साथ करती थी.मुझे हमेशा अकल दी गयी,सुविधा मुहैया कराई गयी, किसी भी समय कुछ भी मांगने पर पूरा  किया गया..........लेकिन नहीं मिला तो तुम्हारा प्यार भरा आँचल.....
                                         समय बीतने पर शादी के बाद विवेक के प्यार ने जीवन की रिक्तता को भर दिया...शिवा के जनम के बाद तो मानों मैं इस दुनिया की सबसे खुशनसीब "माँ" बनी लेकिन "शौर्य" के जनम के बाद नौकरी,घर और दो-दो बच्चों को पालने में जो मशक्कत झेली तो अतीत के तुम्हारे मुझे न रख पाने के दर्द को महसूस कर सकी ....उस दिन तुमसे कोई भी शिकायत न रही..डेढ़ साल तुम्हारे पास ही शौर्य को रखा और शायद मन को सुकून हुआ....लेकिन फिर अपने बचपन के भाव को याद करके ही उसे तुम्हारे पास से वापस ले आई .....अब तुमसे  कोई शिकायत नहीं है. अब सिर्फ एक याचना तुमसे और उस परम पिता परमेश्वर से है............जब-जब, जो-जो जनम मिले; माँ के रूप में तुम ही मिलो....क्योंकि मुझे अपने हिस्से का सारा प्यार चाहिए और एक संतान के रूप में मैं  भी तुम्हें वह सुख दे सकूं जो तुम्हें मेरे द्वारा मिलने चाहिए थे.................बस और कुछ नहीं कहना है मुझे  तुमसे.

1 टिप्पणी: