सोमवार, 5 नवंबर 2012

शर्त ....

शर्त ....
जीवन में,
हर कदम पे,
हर रिश्तें में,
हर मोड़ पे,
खड़ी  है ....
मुहँ बाए 
सुरसा की तरह।

होती हज़म 

अक्सर ही 
उसको .....
ढेर सारी भावनाएं,
चढ़ जाती हैं भेंट 
कई मान्यताएं,
हो जाती हैं स्वाहा 
तेरी-मेरी 
अनेकों इच्छाएँ।

जिंदगी शर्तों पे 

जी नहीं जाती 
पर .......
रोज़ ही जीते हैं हम,
मर-मर के,
करते ख़तम 
स्व अस्तित्व 
शर्तों के साए में।

............डॉ . रागिनी मिश्र ..............


11 टिप्‍पणियां:

  1. जिंदगी शर्तों पे
    जी नहीं जाती
    पर .......
    रोज़ ही जीते हैं हम,
    मर-मर के,
    करते ख़तम
    स्व अस्तित्व
    शर्तों के साए में।

    ऐसा भी संभव है कि अगर शर्तें न हों तो जीवन भी अजूबा लागने लगे क्योंकि अब इंसान को शर्तों के साथ जीने की आदत भी हो गयी है :)

    सादर

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  2. बहुत खूब ...


    भुने काजू की प्लेट, विस्की का गिलास, विधायक निवास, रामराज - ब्लॉग बुलेटिन आज की ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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  3. मैं इस ब्लॉग पर पहली दफा आया हूँ ,
    हालाँकि ये भाव आम छंद-बद्ध कविता से अलग हैं लेकिन यकीन जानिये कि आपकी बात इतनी आसानी से मेरे दिमाग में पहुँच गयी कि वाह |
    और एक बात , मुझे आपका profile introduction बहुत अच्छा लगा |
    जल्द ही दोबारा आना चाहूँगा |

    सादर

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  4. रोज़ ही जीते हैं हम,
    मर-मर के,
    करते ख़तम
    स्व अस्तित्व
    शर्तों के साए में।

    सटीक प्रस्तुति .....

    जवाब देंहटाएं
  5. जिंदगी शर्तों पे
    जी नहीं जाती
    पर .......
    रोज़ ही जीते हैं हम,
    मर-मर के,
    करते ख़तम
    स्व अस्तित्व
    शर्तों के साए में।

    बहुत सुंदर, क्या बात

    जवाब देंहटाएं
  6. जिंदगी शर्तों पे
    जी नहीं जाती
    पर .......
    रोज़ ही जीते हैं हम,
    मर-मर के,
    करते ख़तम
    स्व अस्तित्व
    शर्तों के साए में।
    बिल्‍कुल सच और सटीक बात कही आपने

    जवाब देंहटाएं
  7. वाह !क्या बात कही है आपने ......सुन्दर प्रस्तुति ...

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  8. सटीक बात ..... जीवन ऐसी ही जद्दोज़हद में ही गुजरती है......

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