सोमवार, 25 अप्रैल 2011

प्रेम

मानव जीवन में प्रेम का अत्यंत महत्वपूर्ण है . वह प्रेम के बिना अपना जीवन नहीं व्यतीत कर सकता है .किसी के जीवन में ये कम और किसी के जीवन में अधिक होता है .जिनके जीवन में ये कम होता है ,वह अक्सर  नकारात्मक वृतियों से घिरे रहतें हैं एवं  दूसरों के खुशहाल  जीवन को देखकर ईर्ष्या की अग्नि में जलते रहते हैं .प्रेम एक ऐसा भाव है जो मनुष्य को 'इंसान'बनाने में सहायक होता है .परन्तु जीवन में ये भाव उसी व्यक्ति में होता है जो स्वयं से प्रेम करता है ,जो स्वयं से प्रेम करता है वो समस्त प्राणियों ,प्रकृति से प्रेम कर सकता है .यह एक    सहज भाव है .बहुत सारे व्यक्ति अक्सर यह कहते मिल जाते हैं कि प्रेम जीवन को बर्बाद कर देता है, ऐसा वो सोचते हैं जो बीमार मानसिकता के होते हैं और जिनके लिए प्रेम मात्र शारीरिक आकर्षण होता है .जहाँ प्रेम मन से आरम्भ होता है वहां तो मन के साथ शरीर का मिलना एक सहज प्रक्रिया होती है और तभी प्रेम अपने पूर्ण रूप में
प्रदर्शित होता है.  यह  प्रेम किन्ही दो व्यक्तियों  के मध्य का समीकरण होता है . यही समीकरण व्यक्ति को अन्य व्यक्तियों से प्रेम करने के  लिए प्रेरित करता है और यहीं से आरम्भ होती है 'वसुधैव कुटुम्बकम' की अवधारणा ..

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