रविवार, 11 नवंबर 2012

'मन-मंथन'

आज करो 
फिर से 
मंथन .........
सब अपने-अपने 
मन-सागर का,
निकले कोई 
'कौस्तुभ' शायद,
हो जिससे प्रकाशित 
मन-आँगन।

करने फिर से 
शीतल 
उत्तपन्न हो 'पारिजात'
'कामधेनु' भी आकर 
करे पूर्ण इच्छाएँ ,
'चन्द्र' पुनः प्रकाशित हो 
भरे चांदनी चहुँ ओर ,
हो दृश्य ऐसा 
मन-भावन।

किन्तु,
इन सबसे पहले 
ऐसे करें मंथन .....
निकल जाए सारा हलाहल 
हम सबके मन से,
पिया था गरल 
कल्याण करने को,  
किन्तु आज .....
नहीं चाहिए कोई  शिव 
'नीलकंठ' बनने को, 
सब मथ  के फेंक दे 
उस विष को 
ना करे उसको कोई धारण, 
देखो फिर कैसे 
चमकेगा सबका 
मन-दर्पण।

यूँ ,
रत्न सारे, स्वयं 
आ जायेंगे हमारी 
झोली में 
बजेगा 'विष्णु शंख'
झूमेगा 'ऐरावत'
होंगी अवतरित 'लछमी'
ले 'अमृत-कलश' 
अपने हांथों में 
प्राप्त फिर होगा 
सबको आशीष 
देवी का, और 
महकेगा सबका
घर-आँगन।


............................डॉ . रागिनी मिश्र ...............








4 टिप्‍पणियां:

  1. एक सार्थक कविता एवं सुंदर संदेश । बधाई एवं शुभकामनाएँ ।

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  2. बहुत बढ़िया मैम!


    दीपोत्सव की हार्दिक शुभकामनाएँ!


    सादर

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  3. शब्दों की जीवंत भावनाएं... सुन्दर चित्रांकन.

    बहुत सुंदर भावनायें और शब्द भी ...बेह्तरीन अभिव्यक्ति ...!!शुभकामनायें.
    आपका ब्लॉग देखा मैने और कुछ अपने विचारो से हमें भी अवगत करवाते रहिये.

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  4. किन्तु आज .....
    नहीं चाहिए कोई शिव
    'नीलकंठ' बनने को,
    सब मथ के फेंक दे
    उस विष को
    ना करे उसको कोई धारण,

    bahut sundar rachana likhi hai apne ...badhai sweekaren.

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