''अबके बिछड़े हुए शायद कभी ख्वाबों में मिलें
कि जैसे सूखे हुए फूल,,,, किताबों में मिलें'',……
अभी अलविदा मत कहो दोस्तों, ना जाने कहाँ फिर मुलाक़ात हो'' ………माह फरवरी … १९८६, तारीख याद नहीं, जब ये गाना मैं अपने स्कूल की farewell party में गा रही थी तो मुझे खुद नहीं पता था कि जिनके साथ १२ सालों से पढ़ रही हूँ , उनसे दुबारा मिलने में २७ साल का लम्बा समय खिंच जायेगा। उस समय facebook और mobile तो छोड़िये landline भी कुछ घरों में हुआ करती थी.. इण्टर करने के बाद मैं लखनऊ आ गयी और सबसे नाता पोस्टकार्ड तक सिमट के रह गया. हम सब एक-दूसरे को कुछ समय तक नियम से ख़त लिखते रहें लेकिन मैं ठहरी किताबी-कीड़ा और B.A. कर रही थी मम्मी के कॉलेज से तो, फिर तो पूछो ही मत. सब काम बंद और पढाई, खेल-कूद,एन.सी.सी,प्रतियोगिताएं .… बस और हाँ थोड़े से नए दोस्त। धीरे- धीरे ३-४ साल के अंतराल पर कभी किसी का तो कभी किसी का शादी का कार्ड आ जाता पर हम स्त्रियां ( तब लड़कियां) कितनी बे-बस होती हैं कि बस .......... किसी की भी शादी में नहीं जा पायी। मीना, श्रद्धा, अंजू, रजनी सबकी ग्रेजुएशन करते ही शादी हो गयी और सब अपने-अपने घर-संसार में मस्त और व्यस्त हो गयीं और मैं अपने आगे की पढाई में.…। सिर्फ अल्का थी जिसने सबकी शादी में मस्ती की और वही १९९५ में मेरी शादी में आयी। बस उससे वह आखिरी मुलाकात थी क्यूंकि १९९६ में उसकी शादी के समय मैं माँ बननेवाली थी और मेरी स्थिति जानेवाली नहीं थी.…………। सब इधर-उधर, किसी को किसी की नहीं थी खबर। ……
।
फिर दिसम्बर २००५ में अचानक मीना का सन्देश आया कि वह मुझसे मिलने लखनऊ आ रही है. जाने कितनी तैयारियाँ की मैंने। घर सजाया, तमाम खाने की चीजे लेकिन एक डर भी था मन में कि वह पहचानेगी कैसे? इतनी मोटी जो हो गयी हूँ मैं. लकिन उसके आने पर मेरे पैरों तलें जमीन सरक गयी. मेरे सामने दो लेडीज, दोनों मुझसे ज्यादा बलवान, मीना कौन?
''पहचानने से उसको आँखें कर रही थीं इंकार
मन आप ही १० - २० कर रहा था बारम्बार
कारण, आपस में नहीं था कोई भी मन-मुटाव
ये तो था, बस्स, शरीर पर ढेरों चर्बी का पटाव''
स्थिति उसने ही सम्भाली और 'रगिनीइइइइइइइइइइइइइ ' कहते हुए अपने गद्दर बाहुपाश में मुझे लपेट लिया। दो दिन हमने साथ बिताये, बचपन लौट आया.…। उसके दो बेटों और पति के साथ हम सब खूब लखनऊ घूमे।
फिर अचानक इंटरनेट की बयार चली ,फेसबुक की लहर आयी लेकिन कोई ना मिला। ज़रुरत भी नहीं लगती थी. एक दिन मेरे पास एक लड़के रतन सक्सेना की request आयी, जाने कब तक पेंडिंग पड़ी रही..... accept करते ही मन बल्लियों उछल पड़ा। अरीईईईईई ये तो श्रद्धा का बेटा है..... बस फिर क्या? लेकिन फिर वही स्त्रियों कि जिम्मेदारियाँ, आज अम्मा कि तबियत ख़राब, आज बेटे का इम्तहान और कभी मौसी के बेटे की शादी। मामला टाँय टाँय फ़िस्स।
यहीं फेसबुक पर पिछले साल जनवरी में रजनी मिल गयी. वह बनारस में थी और हमें मार्च में बनारस जाना भी पड़ गया. वह हमें लेने आयी. उसकी तीन बेटियों के स्नेह में मैं अपने बेटी ना होने की कसक को भूल गयी. हम मात्र ५ घंटे साथ रहे लेकिन वह स्मृतियाँ आज भी अत्यंत मधुर हैं.
हम सब फेसबुक से दूर ही रहते थे लेकिन जैसे बचपन में रटा था ''विज्ञान वरदान है या अभिशाप''…उसी तर्ज पर हम कभी-कभी एक दूसरे से chatting कर लिया करते थे और कभी-कभी फ़ोन पर बात। .... . लेकिन पिछले महीने श्रद्धा का का फ़ोन आया कि वह varoda से allahabad आ रही है और सबको आना है. अलका को जौनपुर से, रजनी को बनारस से और तुम्हे भी। यह फिर हम स्त्रियों के लिए मुश्किल की बात थी..... देखा जाए तो मात्र ५ घंटों का सफ़र लेकिन सबको मैनेज करने में ही पूरा एक महीना गुजर गया और तय दिन के मुताबिक हम १३ नवम्बर को allahabad के लिए चल दिए..... रजनी का फ़ोन आया कि उसके पैर में मोच आ गयी है वह नहीं आ पायेगी। बस में बैठने के पहले से ही पेट में तितलियाँ उड़ने लगीं, इतनी नर्वसनेस कि पूछो मत. जैसे कोई इंटरव्यू देने जा रही थी. जिस वोल्वो का टिकट बुक था, वो कैंसिल हो गयी.… मुझे लगा हमारा मिलना अब ना हो पायेगा लेकिन पतिदेव ने हिम्मत बंधाते हुए कहा, ''जाओ, सिर्फ ५ घंटे का सफ़र है, किसी भी बस से मुश्किल ना होगी''…। फिर क्या, चल पड़ी एक बस से, लेकिन भगवान् भी खूब चक्कर चला रहे थे, कुंडा के पास जाकर बस ख़राब हो गयी. उधर सबके फ़ोन पर फ़ोन. सब मीना के घर पहुँच चुके थे और मेरा इंतज़ार कर रहे थे. मैंने बताया मुझे आने में देर हो जायेगी लेकिन किसी ने भी मेरे पहुंचे बिना चाय तक पीने से इंकार कर दिया था. मेरी बस ३.३० बजे सिविल लाइन्स बस स्टैंड पहुंची। बस ने हनुमान-मंदिर चौराहे पर ही उतार दिया, फ़ोन पर हम लगातार संपर्क में थे, उतरकर जैसे ही इधर-उधर देखा कि एक 'इनोवा' से 'रागिनी'-'रागिनी' की चिल्लाहट सुनी, गाड़ी पास ही आकर रुकी और श्रद्धा, मीना, अंजू, अलका सबने एक साथ मुझे बाहों में भर लिया , दो मिनट हम बिना किसी भी गाडी का हॉर्न सुने सड़क पर ही शांति से लिपटे खड़े रहे, आँखें सबकी नाम थी और गला रुंधा हुआ. पता चला कि श्रद्धा के मम्मी-पापा ने लंच का अरेंजमेंट किया है, हम सब उल्लसित मन से पहुंचे hastings road ,उसके घर. पहुँचते ही आंटी अंकल और श्रद्धा के पति तथा दोनों बेटों ने पूरे जोश और स्नेह के साथ हमारा स्वागत किया। किसी ने भी ४ बजे तक खाना नहीं खाया था मुझे ख़ुशी भी हुई और बुरा भी लगा कि मेरे कारण आंटी अंकल चार बजे तक भूखे रहे. घर की सजावट का तो कहना ही क्या। .... लगा जैसे सपनों के महल में हो और सबसे खास बात कि खाना अंकल और आंटी ने खुद बनाया था, इतने नौकर चाकर के होते हुए भी उन्होंने अपने बेटियों के लिए सब खुद किया था..... मन गदगद था और खाना अत्यंत स्वादिष्ट। उसके बाद हमने सिर्फ और सिर्फ मन भरकर मस्ती की. सब कुछ भूल गए हम कुछ समय के लिए। कभी कोई किसी को प्यार कर रहा था तो कोई ताना मार रहा था, पुरानी बातें, गाने, स्कूल के डांस, टीचर्स और न जाने क्या-क्या।।।।।।। सबसे बढ़िया बात, किसी ने भी अपनी वर्त्तमान ज़िंदगी, प्रोब्लेम्स, सास-ससुर का रोना कोई चर्चा तक नहीं। बस हम थे और हम थे। …… हमने अपनी मुलाक़ात कि पहली वर्षगाँठ मनायी केक काटकर, खूब मस्ती की। .... चाय आ गयी, पी ली, स्नैक्स आ गए खा लिए लेकिन मस्ती में कोई disturbance नहीं था , जिसके लिए हमने अंकल और आंटी को और भगवान् का जीभरकर आभार व्यक्त किया। । फिर हम निकले लोकनाथ कि तरफ, वहाँ कि मशहूर 'फ्रूट आइसक्रीम' खाने। जाने कितने ज़माने की भूख थी कि शांत ही नहीं हो रही थी. फिर हम सिविल लाइन्स गए 'हनुमान मंदिर' वहाँ अपने मिलने के लिए उनका धन्यवाद किया और अपनी दोस्ती कि नज़र उतारी। सुबह ५ बजे श्रद्धा कि ट्रैन थीं इसलिए उसे १२ बजे उसके घर छोड़ दिया। कोई गले नहीं लगा क्यूंकि हम सब दर रहे थे कि अब रोये तो बहुत बुरा लगेगा लेकिन आँखें सबने पोंछी। फिर मैं मीना के घर अलका अपने मायके और अंजू अपने घर चली गयी , सुबह संगम के लिए निकलना था।
क्रमशः
कि जैसे सूखे हुए फूल,,,, किताबों में मिलें'',……
अभी अलविदा मत कहो दोस्तों, ना जाने कहाँ फिर मुलाक़ात हो'' ………माह फरवरी … १९८६, तारीख याद नहीं, जब ये गाना मैं अपने स्कूल की farewell party में गा रही थी तो मुझे खुद नहीं पता था कि जिनके साथ १२ सालों से पढ़ रही हूँ , उनसे दुबारा मिलने में २७ साल का लम्बा समय खिंच जायेगा। उस समय facebook और mobile तो छोड़िये landline भी कुछ घरों में हुआ करती थी.. इण्टर करने के बाद मैं लखनऊ आ गयी और सबसे नाता पोस्टकार्ड तक सिमट के रह गया. हम सब एक-दूसरे को कुछ समय तक नियम से ख़त लिखते रहें लेकिन मैं ठहरी किताबी-कीड़ा और B.A. कर रही थी मम्मी के कॉलेज से तो, फिर तो पूछो ही मत. सब काम बंद और पढाई, खेल-कूद,एन.सी.सी,प्रतियोगिताएं .… बस और हाँ थोड़े से नए दोस्त। धीरे- धीरे ३-४ साल के अंतराल पर कभी किसी का तो कभी किसी का शादी का कार्ड आ जाता पर हम स्त्रियां ( तब लड़कियां) कितनी बे-बस होती हैं कि बस .......... किसी की भी शादी में नहीं जा पायी। मीना, श्रद्धा, अंजू, रजनी सबकी ग्रेजुएशन करते ही शादी हो गयी और सब अपने-अपने घर-संसार में मस्त और व्यस्त हो गयीं और मैं अपने आगे की पढाई में.…। सिर्फ अल्का थी जिसने सबकी शादी में मस्ती की और वही १९९५ में मेरी शादी में आयी। बस उससे वह आखिरी मुलाकात थी क्यूंकि १९९६ में उसकी शादी के समय मैं माँ बननेवाली थी और मेरी स्थिति जानेवाली नहीं थी.…………। सब इधर-उधर, किसी को किसी की नहीं थी खबर। ……
।
फिर दिसम्बर २००५ में अचानक मीना का सन्देश आया कि वह मुझसे मिलने लखनऊ आ रही है. जाने कितनी तैयारियाँ की मैंने। घर सजाया, तमाम खाने की चीजे लेकिन एक डर भी था मन में कि वह पहचानेगी कैसे? इतनी मोटी जो हो गयी हूँ मैं. लकिन उसके आने पर मेरे पैरों तलें जमीन सरक गयी. मेरे सामने दो लेडीज, दोनों मुझसे ज्यादा बलवान, मीना कौन?
''पहचानने से उसको आँखें कर रही थीं इंकार
मन आप ही १० - २० कर रहा था बारम्बार
कारण, आपस में नहीं था कोई भी मन-मुटाव
ये तो था, बस्स, शरीर पर ढेरों चर्बी का पटाव''
स्थिति उसने ही सम्भाली और 'रगिनीइइइइइइइइइइइइइ ' कहते हुए अपने गद्दर बाहुपाश में मुझे लपेट लिया। दो दिन हमने साथ बिताये, बचपन लौट आया.…। उसके दो बेटों और पति के साथ हम सब खूब लखनऊ घूमे।
फिर अचानक इंटरनेट की बयार चली ,फेसबुक की लहर आयी लेकिन कोई ना मिला। ज़रुरत भी नहीं लगती थी. एक दिन मेरे पास एक लड़के रतन सक्सेना की request आयी, जाने कब तक पेंडिंग पड़ी रही..... accept करते ही मन बल्लियों उछल पड़ा। अरीईईईईई ये तो श्रद्धा का बेटा है..... बस फिर क्या? लेकिन फिर वही स्त्रियों कि जिम्मेदारियाँ, आज अम्मा कि तबियत ख़राब, आज बेटे का इम्तहान और कभी मौसी के बेटे की शादी। मामला टाँय टाँय फ़िस्स।
हम सब फेसबुक से दूर ही रहते थे लेकिन जैसे बचपन में रटा था ''विज्ञान वरदान है या अभिशाप''…उसी तर्ज पर हम कभी-कभी एक दूसरे से chatting कर लिया करते थे और कभी-कभी फ़ोन पर बात। .... . लेकिन पिछले महीने श्रद्धा का का फ़ोन आया कि वह varoda से allahabad आ रही है और सबको आना है. अलका को जौनपुर से, रजनी को बनारस से और तुम्हे भी। यह फिर हम स्त्रियों के लिए मुश्किल की बात थी..... देखा जाए तो मात्र ५ घंटों का सफ़र लेकिन सबको मैनेज करने में ही पूरा एक महीना गुजर गया और तय दिन के मुताबिक हम १३ नवम्बर को allahabad के लिए चल दिए..... रजनी का फ़ोन आया कि उसके पैर में मोच आ गयी है वह नहीं आ पायेगी। बस में बैठने के पहले से ही पेट में तितलियाँ उड़ने लगीं, इतनी नर्वसनेस कि पूछो मत. जैसे कोई इंटरव्यू देने जा रही थी. जिस वोल्वो का टिकट बुक था, वो कैंसिल हो गयी.… मुझे लगा हमारा मिलना अब ना हो पायेगा लेकिन पतिदेव ने हिम्मत बंधाते हुए कहा, ''जाओ, सिर्फ ५ घंटे का सफ़र है, किसी भी बस से मुश्किल ना होगी''…। फिर क्या, चल पड़ी एक बस से, लेकिन भगवान् भी खूब चक्कर चला रहे थे, कुंडा के पास जाकर बस ख़राब हो गयी. उधर सबके फ़ोन पर फ़ोन. सब मीना के घर पहुँच चुके थे और मेरा इंतज़ार कर रहे थे. मैंने बताया मुझे आने में देर हो जायेगी लेकिन किसी ने भी मेरे पहुंचे बिना चाय तक पीने से इंकार कर दिया था. मेरी बस ३.३० बजे सिविल लाइन्स बस स्टैंड पहुंची। बस ने हनुमान-मंदिर चौराहे पर ही उतार दिया, फ़ोन पर हम लगातार संपर्क में थे, उतरकर जैसे ही इधर-उधर देखा कि एक 'इनोवा' से 'रागिनी'-'रागिनी' की चिल्लाहट सुनी, गाड़ी पास ही आकर रुकी और श्रद्धा, मीना, अंजू, अलका सबने एक साथ मुझे बाहों में भर लिया , दो मिनट हम बिना किसी भी गाडी का हॉर्न सुने सड़क पर ही शांति से लिपटे खड़े रहे, आँखें सबकी नाम थी और गला रुंधा हुआ. पता चला कि श्रद्धा के मम्मी-पापा ने लंच का अरेंजमेंट किया है, हम सब उल्लसित मन से पहुंचे hastings road ,उसके घर. पहुँचते ही आंटी अंकल और श्रद्धा के पति तथा दोनों बेटों ने पूरे जोश और स्नेह के साथ हमारा स्वागत किया। किसी ने भी ४ बजे तक खाना नहीं खाया था मुझे ख़ुशी भी हुई और बुरा भी लगा कि मेरे कारण आंटी अंकल चार बजे तक भूखे रहे. घर की सजावट का तो कहना ही क्या। .... लगा जैसे सपनों के महल में हो और सबसे खास बात कि खाना अंकल और आंटी ने खुद बनाया था, इतने नौकर चाकर के होते हुए भी उन्होंने अपने बेटियों के लिए सब खुद किया था..... मन गदगद था और खाना अत्यंत स्वादिष्ट। उसके बाद हमने सिर्फ और सिर्फ मन भरकर मस्ती की. सब कुछ भूल गए हम कुछ समय के लिए। कभी कोई किसी को प्यार कर रहा था तो कोई ताना मार रहा था, पुरानी बातें, गाने, स्कूल के डांस, टीचर्स और न जाने क्या-क्या।।।।।।। सबसे बढ़िया बात, किसी ने भी अपनी वर्त्तमान ज़िंदगी, प्रोब्लेम्स, सास-ससुर का रोना कोई चर्चा तक नहीं। बस हम थे और हम थे। …… हमने अपनी मुलाक़ात कि पहली वर्षगाँठ मनायी केक काटकर, खूब मस्ती की। .... चाय आ गयी, पी ली, स्नैक्स आ गए खा लिए लेकिन मस्ती में कोई disturbance नहीं था , जिसके लिए हमने अंकल और आंटी को और भगवान् का जीभरकर आभार व्यक्त किया। । फिर हम निकले लोकनाथ कि तरफ, वहाँ कि मशहूर 'फ्रूट आइसक्रीम' खाने। जाने कितने ज़माने की भूख थी कि शांत ही नहीं हो रही थी. फिर हम सिविल लाइन्स गए 'हनुमान मंदिर' वहाँ अपने मिलने के लिए उनका धन्यवाद किया और अपनी दोस्ती कि नज़र उतारी। सुबह ५ बजे श्रद्धा कि ट्रैन थीं इसलिए उसे १२ बजे उसके घर छोड़ दिया। कोई गले नहीं लगा क्यूंकि हम सब दर रहे थे कि अब रोये तो बहुत बुरा लगेगा लेकिन आँखें सबने पोंछी। फिर मैं मीना के घर अलका अपने मायके और अंजू अपने घर चली गयी , सुबह संगम के लिए निकलना था।
क्रमशः