सोमवार, 25 अप्रैल 2011

पहचान

पहचान हर व्यक्ति की ज़रुरत है, उसके जीवन का अनिवार्य अंग...बिना किसी पहचान के व्यक्ति स्वयं को अपूर्ण समझता है इसीलिए वह एक नाम,परिवार और कुल लेकर ही चलता है. बचपन में माँ-बाप द्वारा दिया नाम उसकी सामाजिक पहचान बनती है.. एवं.ईश्वर द्वारा प्रदत्त रूप उसकी व्यक्तिगत पहचान...."वह जो गोरा-गोरा,काले बाल वाला लड़का है ना ,वो शुक्लाजी का है"..
                     अब क्या एक व्यक्ति की इतनी ही पहचान होती है? नहीं....ये जीवनपर्यंत चलने वाली प्रक्रिया है ...समय के साथ-साथ हम समाज में अपनी एक जगह बनाते है ,जिससे हमारी एक अलग पहचान बनती है .....कुछ कर गुजरने की चाहत, कुछ पाने की इच्छा, कुछ दिखाने का जज्बा ..हमें एक ख़ास पहचान देता है....लेकिन जन्म के समय दिया गया नाम  ही उस पहचान को आगे बढाता है ....
                     अब यदि ऐसे में  व्यक्ति अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा के साथ अपना पुराना घर, सामान,इत्यादि  की तरह अपना पुराना नाम भी छोड़ना चाहे तो  क्या ये सामान्य होगा ? अगर पुरानी परिस्तिथियों  से असंतुष्टि भी थी तो हम मनुष्यों की खासियत है ...नकारात्मक को सकारात्मक में बदलने की.....इसके लिए किसी नयी पहचान को बनाने की ज़रुरत नहीं है....नाम और रूप वह लोग बदलते है जो  पलायनवादी होते है...या जिन्हें लोग उस नाम के साथ स्वीकार नहीं कर पाते .....या जो स्वयं से असंतुष्ट होते है....परन्तु यह एक सामान्य बात हुई......
                    जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि "स्वयं को जानने की" है...कभी-कभी यह लाख प्रयास करने पर भी संभव नहीं होता है और कभी तो अनायास ही हो जाता है....ये अनायास  ही ईश्वर  प्रदत्त प्रकाश  है....कोई इस रोशनी को समझ जाता है तो कोई नहीं....हम हमेशा दूसरों को जानने की ही  जुगत में लगे रहते है .....लेकिन इसमें गलत कुछ नहीं..क्योंकि सामनेवाला भी हमारी ही तरह होता है....अब यह प्रयास आपको यदि अपनी ओर ले आये तो "बल्ले-बल्ले"....इसके लिए किसी नाम की आवश्यकता नहीं...कोई कुल,गोत्र हमें स्वयं से नहीं मिला सकता .....हाँ! जो स्वयं को समझ सकता है वह सबको समझ पाने में समर्थ है ...................
                   इसके बाद किसी भी पहचान की आवश्यकता  नहीं रह जाती ...क्योंकि...........
                                       "तुम मुझमे प्रिये! फिर परिचय क्या?"

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