कल 5 सितम्बर था, यानि शिक्षक-दिवस,......आज विद्यालय में उस उपलक्ष्य में छात्राओं द्वारा कुछ रंगा -रंग कार्यक्रमों का आयोजन किया गया। सभी कार्यक्रम अत्यंत ही रोचक और मजेदार थे। लेकिन अचानक ही class 6 एक नन्ही सी छात्रा एक शेर सुनाने मंच पर आई, और बड़े ही सधे हुए स्वर और जोश में उसने एक शेर सुनाना आरम्भ किया,.......
चांदनी चाँद से होगी, तो सितारों का क्या होगा
मैडम सुन रही हैं ना, गौर फरमाइए , "चांदनी चाँद से होगी, तो सितारों का क्या होगा
मायावती मर जाएगी, तो चमारों का क्या होगा"?
यकीन हो या ना हो, लेकिन छोटे से लेकर बड़े बच्चों तक के हाँथ हवा में लहराए और जोरदार तालियाँ और ठहाका एक साथ हाळ में गूँज उठा. हम सब सन्नाटे में आ गए, ये क्या हो गया? आखिर हम समाज के ठेकेदार शिक्षक जो ठहरे। ये नहीं होना चाहिए था, गलत हुआ, वगैरह-वगैरह। लेकिन जिस बच्ची ने सुनाया था वह इन सभी बातों से बेफिक्र थी। उसके चेहरे पर अजीब से विद्रोही भाव थे, उसकी आँखें बहुत ही साफ़-साफ़ कह रही थी 'कुछ' ......ये 'कुछ' हम जाने कितने वर्षों से देख रहे हैं और परसों से लगातार टीवी पर सुन और देख रहे हैं। कल संसद में हुई हाथापाई और आज ये शेर सुनकर हम लोगों के बीच हुई अनबोली हाथापाई ...........आखिर कब तक?
कब तक जातिगत राजनीति करने वाले समाज को दो फाड़ करते रहेंगे और कब तक हम आपस में एक-दूसरे को नफरत की नज़रों से देखते रहेंगे? कब तक समाज का एक वर्ग हमेशा
तथाकथित रूप से पीछे ही रहेगा? क्या इतनी सुविधाओं से लैस कर दिए जाने पर भी उसकी कभी तरक्की नहीं होगी? [नेताओं की नज़रों में] कब तक एक वर्ग से उसका जायज हक़ छीनकर किसी और को दिया जाता रहेगा? कब तक ये नफरत की आग राजनेता जलाये रखना चाहेंगे? कब तक इस आरक्षण की आग में प्रतिभाएं जलती रहेंगी? और आखिर कब तक नाजायज सुविधाओं का लाभ उठानेवालों की चेतना जाग्रत नहीं होगी? ज्यादा कुछ लिखने से मेरे अन्दर की आग भी जल उठेगी इसलिए बस इतना ही प्रश्न है मेरा,''ये आग कब बुझेगी"?
चांदनी चाँद से होगी, तो सितारों का क्या होगा
मैडम सुन रही हैं ना, गौर फरमाइए , "चांदनी चाँद से होगी, तो सितारों का क्या होगा
मायावती मर जाएगी, तो चमारों का क्या होगा"?
यकीन हो या ना हो, लेकिन छोटे से लेकर बड़े बच्चों तक के हाँथ हवा में लहराए और जोरदार तालियाँ और ठहाका एक साथ हाळ में गूँज उठा. हम सब सन्नाटे में आ गए, ये क्या हो गया? आखिर हम समाज के ठेकेदार शिक्षक जो ठहरे। ये नहीं होना चाहिए था, गलत हुआ, वगैरह-वगैरह। लेकिन जिस बच्ची ने सुनाया था वह इन सभी बातों से बेफिक्र थी। उसके चेहरे पर अजीब से विद्रोही भाव थे, उसकी आँखें बहुत ही साफ़-साफ़ कह रही थी 'कुछ' ......ये 'कुछ' हम जाने कितने वर्षों से देख रहे हैं और परसों से लगातार टीवी पर सुन और देख रहे हैं। कल संसद में हुई हाथापाई और आज ये शेर सुनकर हम लोगों के बीच हुई अनबोली हाथापाई ...........आखिर कब तक?
कब तक जातिगत राजनीति करने वाले समाज को दो फाड़ करते रहेंगे और कब तक हम आपस में एक-दूसरे को नफरत की नज़रों से देखते रहेंगे? कब तक समाज का एक वर्ग हमेशा
तथाकथित रूप से पीछे ही रहेगा? क्या इतनी सुविधाओं से लैस कर दिए जाने पर भी उसकी कभी तरक्की नहीं होगी? [नेताओं की नज़रों में] कब तक एक वर्ग से उसका जायज हक़ छीनकर किसी और को दिया जाता रहेगा? कब तक ये नफरत की आग राजनेता जलाये रखना चाहेंगे? कब तक इस आरक्षण की आग में प्रतिभाएं जलती रहेंगी? और आखिर कब तक नाजायज सुविधाओं का लाभ उठानेवालों की चेतना जाग्रत नहीं होगी? ज्यादा कुछ लिखने से मेरे अन्दर की आग भी जल उठेगी इसलिए बस इतना ही प्रश्न है मेरा,''ये आग कब बुझेगी"?
इसके लिए बस इन तथाकथित राजनेताओं का विवेक जाग्रत होना ही एकमात्र उपाय है ......
जवाब देंहटाएंरागिनी जी नमस्कार !
जवाब देंहटाएंआपका लेख पढ़ा , आपके विचारों से सहमत हूँ ! लेकिन मेरे विचार से उस 6 साल की बच्ची की आँखों में "कुछ" नहीं होना चाहिए, और यक़ीनन यह "शेर" उस बच्ची की रचना नहीं होगी ! आपको उस बच्ची को अकेले में बुलाकर उससे उस "शेर" के जनक के बारे में अवश्य पूछना चाहिए ! मैं मानता हूँ की यह शेर का जनक जो भी होगा उसकी आँखों में आपको "कुछ" नहीं बल्कि इस समाज को तोड़ने वाला "बहुत कुछ" दिखाई देगा !
धन्यवाद !
इस आग को बुझा पाना इतना आसान नहीं है ... एक बहुत बड़ा तबका इसको हर समय जलाए रखता है ... इस मे घी डालता रहता है और आम जनता की आहुती दिये रहता है !
जवाब देंहटाएंमुझ से मत जलो - ब्लॉग बुलेटिन ब्लॉग जगत मे क्या चल रहा है उस को ब्लॉग जगत की पोस्टों के माध्यम से ही आप तक हम पहुँचते है ... आज आपकी यह पोस्ट भी इस प्रयास मे हमारा साथ दे रही है ... आपको सादर आभार !
रागिनी जी ये ही वो जहर है जो हम अपनी आने वाली नस्लों में भर रहे हैं। कभी वीपी सिंह ने मंडल की आग मे जलाया था हमारी पीढ़ी को। हम तो संभल गए क्योंकि हमारे माता-पिता ने बचपन से ही माहौल को समझना सिखाया था। मगर जो जल गए वो कहीं के न रहे। सवाल ये था कि हम शिक्षक या माता पिता क्यो बच्चों को सही रास्ता नहीं सिखा पाते। शिक्षकों के साथ समस्या ये है कि अगर वो बच्चों को सही सिखाते हैं तो कई बार अभिभावक ही आड़े आ जाते हैं। अब ये कविता जो बच्ची ने गाई ये तो उसे किसने सिखाई ये नहीं मालूम....पर मासूम बच्चे आज इस कविता को हास्य कविता समझ रहे हैं..पर यही पीढ़ी आगे जाकर इसे सच मानने लगेगी। क्योंकि हास्य कविता या व्यंग्य को समझना हर बच्चे को जल्दी नहीं आता। अब जितना जल्दी हो सकी हमारी पीढ़ी अगली पीढ़ी को इस आग से बचा सके तो बेहतर होगा।
जवाब देंहटाएंJo haalat hain ... Usse to lagta hai ye aag sabko Jala ke hi bujhne wali hai ... Sarthak prashn ...
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया पोस्ट ,काबिले तारीफ ।
जवाब देंहटाएंमेरी नयी पोस्ट -"क्या आप इंटरनेट पर ऐसे मशहूर होना चाहते है?" को अवश्य देखे ।धन्यवाद ।
मेरे ब्लॉग का पता है - harshprachar.blogspot.com
इस आग को बुझाने में अभिभावकों के साथ-साथ शिक्षकों की भी बराबर की ज़िम्मेदारी बनती है की वो अपने बच्चों और विद्यार्थियों को समान भाव से एक सही और अच्छी शिक्षा प्रदान करे। ताकि एक सभ्य समाज का निर्माण हो सके। बाक़ी तो दिगम्बर जी की बात से सहमत हूँ आजकल जो हालात हैं उनको मद्दे नज़र रखते हुए तो यह ज़रा भी नज़र नहीं आता की इस युग में यह आग कभी बुझ सकेगी।
जवाब देंहटाएंसबकी साझा कोशिशें ही बदल सकती है इन हालातों को..... सार्थक पोस्ट
जवाब देंहटाएंजब तक वोटों,नोटों और आरक्षण पर राजनीति केन्द्रित रहेगी…… ये आग तब तक नहीं बुझेगी।
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